सेवाएँ(खिदमात)
हदीस शरीफ की सेवा
मदरसें में शुरुआत से ही तसनीफ़ और तलीफ का सिलसिला शुरू हो चुका था और अब तक यह सिलसिला जारी है। विभिन्न इल्मों और फनों की अरबी, फारसी और उर्दू में कई किताबें लिखी गई हैं, जिनका हिसाब इस संक्षिप्त लेख में मुश्किल है, लेकिन हदीस के इल्म में जो सेवा हुई है, वह मदरसे का एक शानदार और बहुमूल्य हिस्सा है।
हदीस की सेवा का दायरा बहुत विस्तृत है। अगर मदरसे की हदीस सेवा पर एक पूरा लेख लिखा जाए तो वह एक बड़ा रिसाला बन जाएगा, लेकिन संक्षिप्तता और संक्षेप के मद्देनज़र कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ही चर्चा की जा रही है।
हज़रत मौलाना अहमद अली साहब़ रह, बानी और सरपरस्त ने "बुखारी", "मुसलिम", "तिरमिज़ी" और "मिशकत अल-मसाबीह" के हाशिये और छापने से हदीस नबवी की एक महत्वपूर्ण सेवा की। हिंदुस्तान और पाकिस्तान में जितनी हदीस की किताबें छप रही हैं, वह हज़रत ममदूह ही का फज़ल है।
मदरसे के सदस्य और निगरां, अदीब-ए-हिंद हज़रत मौलाना फैज़-उल-हसन साहब़ अलैह रहमह, अदीब सहारनपुर ने विभिन्न इल्मों और फनों के अलावा "हदीस उम्मे ज़रा " की भी श रह लिखी, जो " तौहफ़ा-ए-सीददीक़ीय्याह " के नाम से मशहूर है।
हज़रत मौलाना मुहम्मद मज़हर साहब़ अलैह रहमह नानूतवी ने "इहया अल-उलूम" के हाशिये की त रह "मज्जमा बहार अल-अनवार" का एक संक्षिप्त हाशिया लिखा।
हज़रत मौलाना हबीबुर्रहमान साहब़ अलैह रहमह, सहारनपुर मदरसे ने हदीस की प्रसिद्ध किताब "मुसन्नद अहमद" का उर्दू में तर्जुमा किया, जिससे भारतीय मुसलमानों पर बहुत बड़ा एहसान किया।
हज़रत मौलाना ख़लील अहमद साहब़ अलैह रहमह, पूर्व नाजिम मदरसा ने "अबू दाऊद" की अद्भुत श रह "बज़लुल मुझूद" लिखी, जो लखनउ से 20 जिल्दों में और बेरूत से 14 जिल्दों में छप चुकी है, और मिस्र के प्रसिद्ध आलिम मुहद्दिस महमूद ख़िताब सबकी ने अपनी श रह "अल-मन्शल अल-आज़ब अल-मोरूद" में इसका इस्तिफ़ादा किया है और कुछ जगहों पर इसका हवाला भी दिया है।
हज़रत मौलाना मुहम्मद अद्रीस साहब़ अलैह रहमह का नंधली, जो इसी मदरसे के फारिग़ हैं, मिश्कात अल-मसाबीह" की श रह "अल-तालीक अल-सबीह" लिखी, जो लगभग आठ वॉल्यूमों में है।
मौलाना बद्र आलम साहब़ अलैह रहमह, मेरठी फाज़िल मदरसे ने हज़रत अलामा अनवर शाह कश्मीरी की तकरीर बुखारी को ज़ब्त किया, जो "फैज़ अल-बारी" के नाम से लगभग चार मोटी वॉल्यूमों में प्रकाशित हो चुकी है।
हज़रत मौलाना ज़फ़र अहमद साहब़ थानवी, जिन्होंने मदरसे में शिक्षा हासिल की और एक लंबे समय तक मदरसे के उस्ताद भी रहे, ने "इल्लाअस-सुनन" 20 जिल्दों में लिखी, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान में छप चुकी हैं। इस किताब की महत्वपूर्ण अहमियत और ऊँची क़ीमत का मिस्र के एक प्रसिद्ध आलिम, अलामा ज़ाहिद क़ौसरी ने अपने लेखों में बड़े खुले तौर पर स्वीकृति दी है और लिखा है कि
"असल में यह काम एक जमात को करना चाहिए था, जो अकेले एक व्यक्ति ने किया है और उम्मत पर यह एक हजार साल से कर्ज था, जो इस व्यक्ति ने अकेले चुकाया।"
हज़रत मौलाना मुहम्मद यहया साहब़ अलैह रहमह ने हज़रत गंगोहि की तकरीरें ज़ब्त कीं, जिनमें से " अल-कौकबद-दुर्री " और "लामअ अल-दरारी" प्रकाशित हो चुकी हैं, बाकी मसौदात के रूप में हैं।
शेखुल हदीस हज़रत मौलाना मुहम्मद ज़क्रिया ने "मुआतआ इमाम मालिक" की श रह "औजज़ अल-मसालिक" के नाम से छह वॉल्यूमों में लिखी, जो आलिमों से क़ीमती और प्रशंसा प्राप्त कर चुकी है। इसी त रह "शमाइल तिरमिज़ी" की उर्दू श रह और "कोकब अल-दरी लामअ अल-दरारी" पर एक शोधपूर्ण हाशिया भी लिखा। इसके अलावा हदीस शरीफ का एक विशाल संग्रह आपने उर्दू में ट्रांसलेट किया है, जो "फज़ाइल" के नाम से विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो चुका है।
हज़रत मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ साहब़ अलैह रहमह ने "तहावी शरीफ" की श रह "अमानी अल-हबार" लिखी, जो मदरसा मुसाहेर उलूम वक्फ़ के एक फाज़िल थे।
तहावी शरीफ से संबंधित समस्याएँ और उत्तरों का एक लाभकारी और लाभदायक संग्रह क़ारी सईद रहमान साहब़ क़ामिल पूरी के संकलन के बाद पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ है, यह भी मदरसे के कार्यकर्ताओं के क़लमी तबरुकाात है, जिनकी असल कीमती क़िताबों का संग्रह मदरसे के ऐतिहासिक पुस्तकालय में सुरक्षित है।
हज़रत मौलाना मुहम्मद असद अल्लाह साहब़ अलैह रहमह ने "तहावी शरीफ" पर लेखन शुरू किया और एक हाशिया तैयार किया।
हज़रत मौलाना अशफ़ाक़ रहमान साहब़ कंदहली, जो मदरसे के मुफ्ती थे, ने "अल-तिब अल-शज़ी" हाशिया नसाई, हाशिया मुआतआ इमाम मालिक और तिरमिज़ी शरीफ के प्रारंभिक हिस्से की श रह लिखी।
हज़रत हाजि मौलाना मुफ्ती क़ारी सईद उर रहमान साहब़ अलैह रहमह ने भी तिरमिज़ी के संक्षिप्त हाशिये के अलावा इसके प्रारंभिक अंश की श रह लिखी, जो अब तक प्रकाशित नहीं हो सकी।
हज़रत मौलाना मुहम्मद हयात संभली, मुसाहिरी ने हदीस के इल्म में "तालीकात अली सनन अबू दाऊद", "तअतिर अल-मशाम", "ब्लॉग अल-मराम" और "मआनी अल-आथार" का तर्जुमा लिखा और कई हदीस किताबों की श रह भी की।
हज़रत मौलाना क़ारी सिद्दीक साहब़ बांदवी ने अन्य इल्मों और फनों की शरहों के साथ बुखारी शरीफ की संक्षिप्त श रह लिखी, जो "इसआद अल-बारी अल-मशहूर बह तसील अल-बारी" के नाम से प्रसिद्ध है और हाल ही में बंबई और बांदा से प्रकाशित हुई है।
फ़कीहुल-इस्लाम हज़रत मौलाना शाह मुफ़्ती मुज़फ़र हुसैन रहमतुल्लाह अलेह जिनको लगभग 14 साल क़िताबें हदीस पढ़ाने का शर्फ हासिल हुआ और तिरमिज़ी शरीफ जैसी प्रसिद्ध किताब 33 बार पढ़ाई, और इस दौरान 47 साल तक आप इस दीनिय केंद्र के न सिर्फ़ अध्यक्ष मुफ्ती रहे बल्कि 39 साल तक मदरसा
"मज़ाहिर उलूम की प्रशासनिक मसनद पर भी रहे। हज़रत मुफ़्ती मुज़फ़र हुसैन की दर्स तिरमिज़ी को "दर्स मुज़फ़री" के नाम से मजलिस खैर सूरत गुजरात ने प्रकाशित करना शुरू कर दिया है, जिसका प्रस्तावना और पहली जिल्दों लगभग 700 पृष्ठों पर आधारित है।
हज़रत मौलाना अलामा मुहम्मद उस्मान घनी मदज़िल्लह आला, शेखुल हदीस मज़ाहिर उलूम वक्फ़ सहारनपुर की अद्भुत किताब "नसर अल-बारी" जो बुखारी शरीफ की उर्दू भाषा में अनमोल श रह है
और उर्दू में हमारे हिसाब से अब तक कोई पूर्ण श रह नहीं आई थी, अल्लाह का एहसान है कि बुखारी शरीफ की यह अहम सेवा भी मदरसा मुसाहेर उलूम (वक्फ़) के हिस्से में आई। अलहम्दुलिल्लाह
सुलूक तसव्वुफ
तसव्वुफ और सुलूक, जो कि आत्मा की शुद्धि से संबंधित है और आम तौर पर खानकाही व्यवस्था से जुड़ा हुआ माना जाता है, यह सेवा मदरसों में भी शुरूआत से ही जारी रही है। हर दौर में मदरसे के जलीलुल कदर उलामा मशाइख की एक सम्मानित जमात आत्मा की शुद्धि और दिलों की सुधार की सेवा में व्यस्त रही, और इस प्रकार सैकड़ों इंसान, जो बाहरी ज्ञान की दौलत से सम्पन्न हुए, इन बुज़ुर्गों की सेवा में रहकर आत्मिक दौलत और रूहानी फ़ैज़ से निहाल हुए, और हक की उच्चतम मंजिल तक पहुंचे, जिससे अनेकों गुमराह इंसानो के लिए रहमत और हिदायत का ज़रिया बने।
हज़रत मौलाना मोहम्मद मज़हर रहीमा हुल्ला, हज़रत मौलाना खलील अहमद रहीमा हुल्ला, हज़रत मौलाना मोहम्मद इलियास रहीमा हुल्ला, हज़रत मौलाना बदर आलम महाजिर मदनी रहीमा हुल्ला, हज़रत मौलाना अब्दुर्रहमान रहीमा हुल्ला, हज़रत मौलाना मोहम्मद जकरिया रहीमा हुल्ला, हज़रत मौलाना मोहम्मद असअदुल्लाह रहीमा हुल्ला, और हज़रत मौलाना मुफ्ती महमूद हसन गंगोही रहीमा हुल्ला, और फकीहुल इस्लाम हज़रत मौलाना शाह मुफ्ती मुजफ्फर हुसैन रहीमा हुल्ला के नाम इस सिलसिले में काबिल ए ज़िक्र हैं, जिनके साए में इस कार्य की बड़ी सेवा संभव हुई।
दावत और तबलीग
शिक्षा और ज्ञान का मुख्य उद्देश्य इस्लाम का प्रचार और प्रसार है। हज़रत अनबिया (अलैहिमुस्सलाम) के बाद अब यह कार्य उम्मत-ए-मोहम्मदिया का महत्वपूर्ण फरज़ है। हज़रत मौलाना इनायत इलाही, नाज़िम-ए-मदरसा, ने दावत और तबलीग की महत्वपूर्णता और फायदों को ध्यान में रखते हुए मदरसे में एक स्थायी संगठन की स्थापना की, जिसका नाम हज़रत मौलाना रशीद अहमद गंगोही ( रहमतुल्लाह अलैह) के नाम पर "हिदायतुल रशीद" रखा गया। यह संगठन लंबे समय से इस्लाम के प्रचार और उसकी हिफाज़त में व्यस्त है।
यह ऐतिहासिक तथ्य दिलचस्प भी है कि इस संगठन को शैख़ुल मशायिख हज़रत मौलाना शाह अब्दुर्रहीम रायपुरी ( रह.), शैख़ुल हिंद हज़रत मौलाना महमूदुल हसन देवबंदी ( रह.) और हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ अली थानवी ( रह.) ने स्थापित किया और जीवन भर इस संगठन की सरपरस्ती और सहायता की। उन्होंने इस संगठन के विशेष कार्यक्रमों में हिस्सा लिया और लोगों को नसीहत और तबलीग किया।इस संगठन के सदस्य हमेशा अपनी नेक नियति, मेहनत और संघर्ष से बुराई की ताक़तों को मात देते रहे। उन्होंने आर्य समाज और अन्य बुरे समुदायों के खिलाफ़ नसीहत, तकरीर और मुनाज़रा के माध्यम से इनके बुरे विचारों का खंडन किया और इस मकसद के लिए समय-समय पर विभिन्न पत्रिकाएं प्रकाशित कीं।
इस संगठन के माध्यम से तालिबान-ए-इल्म को नसीहत, तकरीर, मुनाज़रा, सुंदर लेखनी और लेखन का अभ्यास कराया जाता है। अल्हम्दुलिल्लाह, इस संगठन ने सैकड़ों मुनाज़िर, मुबलिग़, लेखकों और प्रमुख खतीबों को तैयार किया है। इनमें हज़रत मौलाना असदुल्लाह ( रह.), हज़रत मौलाना नूर मोहम्मद टांडवी ( रह.), हज़रत मौलाना मोहम्मद ज़करिया कदुसी ( रह.), हज़रत मौलाना अहमद अली अघवानपुरी ( रह.), हज़रत मौलाना अमीर अहमद कांधलवी ( रह.), हज़रत मौलाना मुफ्ती सईद अहमद अजरावी ( रह.), हज़रत मौलाना ज़रीफ अहमद पुरकाज़वी ( रह.), हज़रत मौलाना मुफ्ती अब्दुल कुदूस रूमी (मदज़िल्लाह), हज़रत मौलाना मुफ्ती हबीबुर्रहमान खैराबादी (मदज़िल्लाह) और हज़रत मौलाना नसीम अहमद गाज़ी ( रह.) के नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।
तबलीग़ी आंदोलन भी अल्हम्दुलिल्लाह मदरसे के फायदे और उसके वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के शानदार कार्यों में से एक है। इस आंदोलन के जो मुबारक और स्पष्ट प्रभाव और चिन्ह दुनिया में प्रकट हो रहे हैं, उनसे इस्लाम और मुसलमानों को अत्यधिक फायदा हो रहा है। यह भी एक कम ज्ञात तथ्य है कि हालांकि हज़रत मौलाना मोहम्मद इलियास कांधलवी ( रह.) इस आंदोलन के संस्थापक और प्रवर्तक माने जाते हैं और उन्होंने इस आंदोलन की शुरुआत मेवात क्षेत्र से की, लेकिन यह ऐतिहासिक सत्य है कि हज़रत मौलाना कांधलवी ( रह.) से पहले शाह मोहम्मद रमज़ान (शिष्य शाह अब्दुलअज़ीज़ रह.), हज़रत मौलाना मोहम्मद महबूब अली ( रह.), हज़रत मौलाना मोहम्मद फरीद ( रह.), (शिष्य मौलाना मोहम्मद हसन रह.), हज़रत मौलाना नूर अली ( रह.) और हज़रत मौलाना अब्दुल्ला खान ( रह.) (शिष्य मौलाना अहमद अली रह. मोहद्दिस सहारनपुरी) की तबलीग़ी और इस्लाही गतिविधियां लंबे समय से मिवात क्षेत्र में जारी थीं। हज़रत मौलाना अशरफ अली थानवी ( रह.) के वे प्रतिनिधि जो फ़ित्ना-ए-इरतिदाद (इस्लाम धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म को अपनाना) के समय में लगातार इस क्षेत्र की ओर भेजे गए और उनसे हज़रत मौलाना मोहम्मद इलियास ( रहमतुल्लाह अलैह) का इस आंदोलन के साथ जुड़ाव और संबंध आंदोलन की शुरुआत से भी पहले से लगातार बना रहा, यह सब इस आंदोलन के लिए नींव की ईंट की त रह हैं।
हज़रत मौलाना मोहम्मद इलियास साहिब कंधलवी ( रह.) इसी मदरसे के विद्वान और शिक्षक थे। एक अवधि तक उन्होंने मदरसे में शिक्षात्मक सेवा प्रदान की। फिर वे दिल्ली स्थानांतरित होकर सबसे पहले मकातिब-ए-क़ुरानिया शुरू किए और फिर हज़रत थानवी ( रह.) के मार्गदर्शन में तबलीग का काम शुरू किया। हज़रत मौलाना मोहम्मद इलियास कंधलवी ( रह.) के बाद हज़रत मौलाना मोहम्मद यूसुफ कंधलवी ( रह.) (मुसन्निफ़ हयात अस-सहाबा), हज़रत मौलाना इनामुल हसन ( रह.), हज़रत मौलाना उबेदुल्लाह बलयावी ( रह.), हज़रत मौलाना इज़हारुल हसन कंधलवी ( रह.), हज़रत मौलाना इफ़्तिख़ारुल हसन कंधलवी (मद्ज़िल्लाह) और हज़रत मौलाना ज़ुबैरुल हसन आदि भी अल्हम्दुलिल्लाह इसी संस्था के फाज़िल और प्रमाणित हैं। हज़रत मौलाना मुहम्मद लाट साहिब और हज़रत मौलाना मुहम्मद कंधलवी ख़लीफ़ा और मुफ्ती मुज़फ्फर हुसैन ( रह.) भी इसी संस्था के लाभार्थियों में से हैं। अल्लाह तआला बुज़ुर्गों के लगाए हुए इस बाग़ को हमेशा ताज़ा रखें, हसद करने वालों के हसद और उनकी बुरी नज़र से सुरक्षित रखे, इस मदरसे की इस्लाम के लिए हर त रह की सेवाओं को क़बूल करे और और काम करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएं।
पत्रकारिता सेवाएं
मदरसों के छात्रों ने इस क्षेत्र में विभिन्न भाषा में इस्लाम की सच्चाई और प्रमाणिकता के लिए हर प्रकार के विद्वतापूर्ण, साहित्यिक और धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं का उपयोग किया, जिससे मुसलमानों को सही इस्लामी मार्गदर्शन मिल सके।
सहारनपुर के साप्ताहिक पत्रिका
"अहरार" को, जो हज़रत मौलाना सईद अहमद देवबंदी मज़ाहिरी और मौलाना मोहम्मद जकरिया असदी की संपादकीय में प्रकाशित होता था, मई 1940 से साप्ताहिक के बजाय त्रैमासिक कर दिया गया। इस अखबार की तारीफ करते हुए दिल्ली के मासिक पत्रिका
“बुरहान” ने लिखा था कि यह एक गंभीर और विद्वतापूर्ण अखबार है और इस दुर्दशा भरे दौर में देश और समुदाय की सही और बेहतरीन सेवाएं प्रदान कर रहा है।
अविभाजित भारत में डेरा गाजी खान से साप्ताहिक पत्रिका
"इस्लाह" मौलाना मसूद अली खान मज़ाहिरी की संपादकीय में प्रकाशित हुआ और एक अवधि तक पत्रकारिता सेवाएं देने के बाद 1946 में विषम परिस्थितियों और देशीय विवादों के कारण बंद हो गया।*
सहारनपुर से ही मौलाना हकीम मुशरफ मज़ाहिरी ने एक पंद्रह दिवसीय अखबार
"अल्लाहु अकबर" 1979 से शुरू किया। इसी प्रकार उनकी संपादकीय में साप्ताहिक "हरम" 1952 से शुरू हुआ। साप्ताहिक
"मुहकिक" जो तिब्बिया कॉलेज सहारनपुर का प्रतिनिधि था, इसके संपादकीय कर्तव्यों को भी उन्होंने एक अवधि तक निभाया।
हज़रत मुफ्ती जमील अहमद साहिब थानवी ( रह.) की संपादकीय में सहारनपुर से मासिक
“अल मज़ाहिर” जारी हुआ।
हकीमुल उम्मत हज़रत थानवी ( रह.) के खास सेवक और परवरदा हज़रत मौलाना सैयद ज़हूरुल हसन कसुलवी मज़ाहिरी की संपादकीय में मासिक पत्रिका
"अशरफुल उलूम" के नाम से सहारनपुर से 1935 में जारी हुआ।
मासिक पत्रिका
"इशाअत-ए-इस्लाम" सहारनपुर, जो हज़रत मौलाना मोहम्मद असदुल्लाह ( रह.) नाज़िम मदरसा की दुआओं और इच्छाओं के साथ, मौलाना इस्लामुल हक असदी मजाहिरी (खलीफ़ा और मुफ़्ती मुफ़्फ़र हुसैन रह.) के संपादन में 1962 से प्रकाशित हुई। इसी प्रकार 1979 में मौलाना असदी के संपादन और मौलाना इलियास मजाहिरी की सहायता से मासिक पत्रिका
"तहक़ीक़ात-ए-इल्मिया" प्रकाशित हुई।
नवमुस्लिम आलिम-ए-दीन मौलाना दीन मोहम्मद साहिब मजाहिरी के संपादन और मौलाना जमील रहमान थानवी मजाहिरी की निगरानी में 1949 से मासिक पत्रिका
"दींदार" भी इसी धरती से प्रकाशित हुई।
इसके अलावा, सहारनपुर से प्रकाशित होने वाले विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में पत्रकारिता की सेवाएं देने वाले मज़ाहिरी उलेमा अलग हैं, जिनका जिक्र इस आलेख की लंबाई का कारण बनेगा।
जामिया मज़ाहिर उलूम वक्फ सहारनपुर में नज़ामत के पद पर सबसे लंबे समय तक कार्य करने वाले फकीह-ए-इस्लाम हज़रत मौलाना मुफ़्ती मुज़फ़्फ़र हुसैन रह. ने मदरसे की तर्जमानी और देश-विदेश में मदरसे की आवाज़ और उसके पैगाम को पहुँचाने के लिए 1988 में मासिक पत्रिका
'आइना-ए-मज़ाहिर उलूम' की शुरुआत की, जिसके पहले संपादक हज़रत मौलाना इनामुर्रहमान थानवी थे। यह माहनामा बहुत ही क़ीमती और सोचने पर मजबूर करने वाले मुद्दों पर आधारित होता है, और अल्हम्दुलिल्लाह, समय की पाबंदी के साथ जारी है।
हज़रत मौलाना आशिक़ इलाही मेरठी की प्रशासन के अधीन मासिक पत्रिका 'अल-रशाद' सहारनपुर 1914 से जारी हुआ।
सरज़मीन दैवबंद से मौलाना अबुल क़ासिम रफ़ीक़ दिलावरी की संपादन में और मौलाना अतीक अहमद मज़ाहिरी दैवबंदी की सहायता से 15 नवम्बर 1927 से साप्ताहिक पत्रिका
'अल-अन्सार' जारी हुआ।
बंगाल की राजधानी कलकत्ता से सप्ताहिक
"इस्लाम" शुरू हुआ, जिसके संस्थापक और संपादक मौलाना नूर मोहम्मद खान टांडीवी थे। इसी प्रकार, 1939 में मौलाना ने सप्ताहिक
"अल-इस्तक़लाल" के नाम से एक और अखबार शुरू किया, जो ब्रिटिश सरकार के अत्याचार के चलते बंद हो गया।
थाना भवन की धरती से
"अल-इमदाद" नामक मासिक पत्रिका 1915 में शुरू हुई, जो हज़रत थानवी की शिक्षाओं का प्रबल प्रचारक और तर्जुमान था। हज़रत मौलाना शब्बीर अली थानवी इस मासिक पत्रिका के सहायक संपादक थे।
इसी प्रकार,
"अल-शेख" नामक मासिक पत्रिका भी कुछ समय के लिए थाना भवन से प्रकाशित हुई, जिसका संपादन मौलाना शबीरी अली थानवी ने किया था। इसके अतिरिक्त, उनकी संपादन में एक और प्रसिद्ध मासिक पत्रिका
"अल-नूर" 1339 हिजरी से प्रकाशित हो रही थी, जो अपने समय की एक अत्यंत लोकप्रिय मासिक पत्रिका मानी जाती थी।
शवाल 1345 हिजरी में मौलाना की संपादन में एक और मासिक पत्रिका
"अल-मुबल्लिग़" प्रकाशित हुई।
मासिक पत्रिका
"अल-अदब " का प्रकाशन 1937 में कानपुर से हुआ था। इसके संपादक मौलाना ज़िया-उल-नबी अब्बासी फाजिल दैवबंद थे, और इसके संपादन में मौलाना अहमद अब्दुल हलीम, मुफ़्ती जमील अहमद थानवी मज़ाहिरी, और जिगर मुरादाबादी जैसे प्रमुख व्यक्ति शामिल थे।
इसके बाद,
"पयाम-ए-सुनत" नामक पंद्रह दिन की पत्रिका भी कानपुर से जारी हुई, जिसका संपादन हज़रत मौलाना मुफ़्ती मंज़ूर अहमद कानपुरी और मौलाना अनवर अहमद जामी ने किया। इस पत्रिका का पहला अंक जुलाई 1976 में प्रकाशित हुआ था।
इसके अलावा,
"मंशूर ए मुहम्मदी" नाम से एक और पत्रिका हज़रत मौलाना मुहम्मद अली मज़ाहिरी मोंगीरी (जो नदवातुल उलामा, लखनऊ के संस्थापक थे) ने 1972 में प्रकाशित की थी।
ये पत्रिकाएँ और उनके संपादक धार्मिक और साहित्यिक समाज में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले व्यक्ति थे, जो इस्लामिक शिक्षा, संस्कृति, और समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रकाशित करने के लिए काम कर रहे थे।
इस प्रकार,
"निजाम" नामक मासिक पत्रिका, जो मौलाना अब्दुल क़यूम मज़ाहिरी की देखरेख में कानपुर से प्रकाशित हुई, और
"हादी" मासिक पत्रिका कानपुर ने अपने समय में जिम्मेदार पत्रकारिता सेवाएँ प्रदान कीं और इस्लामी मुद्दों और आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद, बर्मा से उर्दू समाचार पत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि बर्मा की धार्मिक और शैक्षिक वातावरण को फिर से स्थापित करने में मज़ाहिर उलूम के बड़े विद्वानों का महत्वपूर्ण और मूलभूत योगदान था। हज़रत मौलाना अब्दुल लतीफ पूर क़ाज़वी, हज़रत मौलाना मुहम्मद असदुल्लाह, और हाल के समय में फ़क़ीहुल इस्लाम हज़रत मुफ़्ती मुज़फ़्फ़र हुसैन (नाज़िम मज़ाहिर उलूम) ने बर्मा की यात्रा की और बर्मा के मुसलमानों का मज़ाहिर उलूम से जुड़ाव लगातार बना रहा, जो पुराने समय से अस्तित्व में है।
"इस्तक़लाल" मासिक पत्रिका रंगून से 1945 में मौलाना इब्राहीम मज़ाहिरी की अध्यक्षता में मर्कज़ी जमीयत-उल-उलामा बर्मा के अधीन प्रकाशित हुई, और इसमें बर्मा के मज़ाहिरी उलेमा के कई महत्वपूर्ण लेख और सामग्री प्रकाशित होते रहे, जिनमें मौलाना अब्दुल वहीद मज़ाहिरी, मौलाना महमूद दाऊदी यूसुफ मज़ाहिरी, मौलाना मुहम्मद हाशिम मज़ाहिरी, मौलाना अब्दुल वहाब मज़ाहिरी, मौलाना इदरीस मज़ाहिरी, मौलाना हुसैन अहमद मज़ाहिरी, मौलाना मुहम्मद यूसुफ मज़ाहिरी, मौलाना बदरुल ज़मां मज़ाहिरी, और मौलाना नूर मुहम्मद मज़ाहिरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इसके अलावा, मौलाना मुहम्मद मूसा रंगूनी मज़ाहिरी की संपादन में बर्मी भाषा में
"तहज़ीबुल इस्लाम" मासिक पत्रिका रंगून से प्रकाशित हुई। इसी प्रकार, मौलाना इब्राहीम अहमद मज़ाहिरी और मौलाना महमूद यूसुफ मामसाकी के प्रयासों से
"दौर-ए-जदीद" नामक दैनिक समाचार पत्र रंगून से प्रकाशित हुआ।
"अल-महमूद" मासिक पत्रिका फरवरी 1939 में रंगून से प्रकाशित हुई थी, जिसका संपादन प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान हज़रत मौलाना अमीर अहमद मीरठी की देखरेख में शुरू हुआ था। इस मासिक पत्रिका में मौलाना हाफिज़ मुहम्मद सुलैमान मज़ाहिरी, मौलाना खलील उर्रहमान मज़ाहिरी, मौलाना महमूद रांडेरी मज़ाहिरी और हज़रत मौलाना मुहम्मद असदुल्लाह (नाज़िम मज़ाहिर उलूम) जैसे प्रमुख विद्वान विशेष कॉलम लेखक थे।
इसके बाद, दिल्ली से 1947 में
"आफ़ताब-ए-नबूवत" नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई, जिसके संपादक मौलाना इदरीस अन्सारी अन्बहटवी थे।
हज़रत मौलाना जफर अहमद थानवी की देखरेख में, पंजाब, पाकिस्तान से 1950 में
"माहनामा अशराफ-उर- रहमान" का प्रकाशन हुआ।
हज़रत मौलाना मुफ़्ती अशफ़ाक़ उर- रहमान कंधलवी के संपादन में, दिल्ली से
"अल-हिक्मत" मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई, जो खास तौर पर इल्म-ए-कलाम, तफसीर, हदीस, और फिकह पर केंद्रित थी।
इसके अलावा, भोपाल से 1948 के अंत में
"निशान-ए-मंज़िल" नामक पंद्रह दिन की पत्रिका प्रकाशित हुई, जिसका मुख्य संपादक मौलाना नजम-उल-हसन थानवी मज़ाहिरी थे।
मुफ़्ती-ए-आज़म पाकिस्तान हज़रत मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद शफ़ी दीओबंदी की देखरेख में
"अल-बलाग़" मासिक पत्रिका 1967 में कराची से प्रकाशित हुई। इसके संपादक मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद तकी उस्मानी और मौलाना खलील उर्रहमान नौमानी मज़ाहिरी थे।
लाहौर से प्रकाशित
"ज़मीनदार" अखबार के संपादक और मालिक हज़रत मौलाना ज़फर अली ख़ान थे। इस अखबार में मज़ाहिर उलूम वक़्फ़ के पूर्व शिक्षक हज़रत मौलाना अकबर अली सहारनपुरी का सहायक संपादक के रूप में योगदान था।
जेहलम (पंजाब, पाकिस्तान) से
"सिराज उल अख़बार" का प्रकाशन हुआ था, जिसका संस्थापक मौलाना फ़कीर मुहम्मद थे और मौलाना अबुल फ़ज़ल करमुद्दीन दबीरे फाज़िल मज़ाहिर उलूम ने क़दीयानी आंदोलन के खिलाफ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
मुरादाबाद की ज़मीन से मार्च 1953 से मासिक पत्रिका
"इस्लाह" जारी हुई, जिसकी संपादकीय मंडल में मौलाना फ़ज़लुर्रहमान मज़ाहिरी सरसवी ने एक अरसे तक सेवा अंजाम दी।
इलाहाबाद से हज़रत मौलाना मुफ़्ती अब्दुल क़ुदूस रोमि, मुफ़्ती-ए-शहर आगरा ने
"अल-इहसान" नाम से 1954 में मासिक पत्रिका जारी की, जो खासतौर पर सुलूक और तसव्वुफ़ को बयान करता था।
बांगलादेश की राजधानी ढाका से हज़रत मौलाना ज़फर अहमद उस्मानी की ज़ेरे सरपरस्ती और मौलाना उमर शहीद इरफानी के संपादन में सप्ताहिक
"मंशूर" जारी हुआ, जिसने महत्वपूर्ण सेवाएँ अंजाम दी हैं।
लुधियाना से मासिक पत्रिका
"नूर अला नूर" हज़रत मौलाना नूर मोहम्मद मज़ाहिरी लुधियानवी (शागिर्द-ए-ख़ास हज़रत मौलाना अहमद अली मुहदिस सहारनपुरी) के संपादन में 1903 में जारी हुई।
टांडा, जिला फैज़ाबाद से मौलाना मुख़्तार अहमद मज़ाहिरी के संपादन में मासिक पत्रिका
"दवाम" जारी हुई।
लखनऊ से मौलाना मुहम्मद सानी मज़ाहिरी के संपादन में 1956 में जारी होने वाली मासिक पत्रिका
"रिज़्वान"।
देवबंद से मौलाना अतीक अहमद सिद्दीकी मज़ाहिरी के संपादन में 1937 में जारी होने वाली मासिक पत्रिका
"सुलतानुल उलूम"।
मौलाना अब्दुर्रऊफ़ आली मज़ाहिरी के संपादन में देवबंद से निकलने वाली मासिक पत्रिका
"अल-क़ासिम"।
मौलाना अतीक अहमद मज़ाहिरी के संपादन में देवबंद से निकलने वाली
"क़ासिमुल उलूम"।
मौलाना ग़ियासुल हसन मज़ाहिरी किरानवी के संपादन में दिल्ली से निकलने वाली मासिक पत्रिका
"सहबान-ए-हिंद" और
"दीनी मदरसा" ... आप ही के संपादन में तिमाही पत्रिका
"कैफ" नई दिल्ली।
लंदन से मौलाना मुहम्मद मूसा सुलैमान करमाड़ी मज़ाहिरी के संपादन में निकलने वाली मासिक पत्रिका
"फारान"।
मैनचेस्टर, इंग्लैंड से अल्लामा खालिद महमूद की ज़ेरे निगरानी निकलने वाली मासिक पत्रिका
"अल-हिलाल" जो मौलाना मुहम्मद इक़बाल रंगोनी मज़ाहिरी के संपादन में अब भी प्रकाशित हो रही है।
ग्लॉस्टर से मासिक पत्रिका
"अल-तबलिग़" और
"अल-इस्लाम" वगै रह ने अजनबी देशों में इस्लाम की तलबीज और इशात जिस तरीके से की,वह यकीनन काबिल-ए-तारीफ है।"
माज़ी क़रीब में मज़ाहिर उलूम के फ़ारिग़ीन ने पत्रकारिता की ज़िम्मेदारियों को अच्छी त रह निभाने में ख़ास दिलचस्पी दिखाई है, जैसा कि मौलाना एम. वदूद साजिद ने जो
"अख़बार-ए-नो", नई दुनिया और रोज़नामा
"राष्ट्रिया सहारा" में अहम सेवाएँ दी हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है।
मासिक पत्रिका
"अल-मुस्तफ़ा" लखनऊ, जिसने बहुत कम समय में क़ाबिल-ए-तारीफ़ कामयाबी हासिल की है।
इसी त रह मदरसा मिफ़्ताहुल उलूम जलालाबाद के तर्जुमान मासिक पत्रिका
"मिफ़्ताह उल ख़ैर" जो मौलवी मुफ़्ती मुहम्मद नईम मज़ाहिरी के संपादन में सफलता की मंज़िलों पर गामज़न है।
बैतुल उलूम सराय मीर आज़मगढ़ का मासिक पत्रिका
"फ़ैज़ान-ए-अशरफ" मुफ़्ती मुहम्मद अब्दुल्लाह फूलपुरी के संपादन में प्रकाशित हो रहा है।
आजमगढ़ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका
"अल-शारिक" मौलाना तकी़उद्दीन मज़ाहिरी की ज़ेरे निगरानी प्रकाशित हो रही है।
मासिक पत्रिका
"वसीयत उल उलूम" और
"वसीयत उल इरफ़ान" जो मौलाना अहमद मकीन मज़ाहिरी के संपादन में प्रकाशित हो रही है।
इसके अलावा, नेमत की क़ुबूलियत के तौर पर इस हक़ीकत को बयान करने में कोई हिचक नहीं है कि अल्हम्दुलिल्लाह, देश और बाहर में प्रकाशित होने वाले अख़बारों और पत्रिकाओं में उलामा ए मझाहिर उलूम किसी न किसी तरीक़े से जुड़े हुए हैं।
तहफ़ुज़-ए-ख़त्म-ए-नबुवत
सरकार-ए-दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ज़ात-ए-ग़रामी, मबदअ-ए-हिदायत और सर्चश्मा-ए-सआदत है। यह सिसकती हुई इंसानियत और दम तोड़ती हुई "शराफ़त के लिए एक तिरियाक है। ज़लालत और ज़िल्लत के ज़हरीले हालात में आपकी आना ख़ुदा वंद क़ुदूस का बहुत बड़ा इनाम है। लेकिन इस्लाम और इंसानियत के नित्य और शाश्वत दुश्मन, शैतान को यह कभी गवारा नहीं हो सकता कि इस्लाम की नित्य सच्चाईयों और लाजवाब हकीकतों पर सच्ची इंसानियत की तामीर हो। बुराई के समर्थक, शैतानी ताक़तें और झूठी पूजा के तंत्र शुरू से ही इंसान और उसके ख़ुदाई मज़हब से टकराते रहे हैं। सच्ची सोच और सच्चे लोग हमेशा शैतानी ताक़तों की नज़रों में कांटा बन कर खटकेते रहे हैं और इन ताक़तों के पास मौक़ा रहता है कि वे इस्लाम के जहाज़ को डुबोएं और उसके दीनी जज़्बे को दफन कर दें।
अल्लाह तआला ने नेक और बुरे लोगों के लिए दो अलग-अलग मोर्चे तय कर दिए हैं। अच्छाई पर बुराई का शासन कभी नहीं हो सकता। अच्छे लोग ही आख़िरकार सफल रहेंगे, लेकिन ग़लत आमाल और इस्लाम के खिलाफ़ तहरीक़ात की वजह से कुछ समय के लिए अजमाइशें और मुश्किलें आ सकती हैं। अच्छाई के सागर में बुराई का वजूद असंभव है । इस्लाम के पाक दामन पर क़ुफ़्र के छींटे कभी नहीं जम सकते। चाँद पर थूकना और सूरज को पत्थर मारना बुद्धिमत्ता के खिलाफ़ है। सत्य का गला घोंटकर असत्य को तख़त-ए-ताउस सुपुर्द कर देना सही तबीयत के खिलाफ़ है और अच्छे लोग क़ुफ़्र के मकर और ताग़ूत के फरेब में नहीं आ सकते। ख़ुशी और दुख हर इंसान की त़क़दीर से जुड़ी होती है।
सरकार-ए-दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्पष्ट रूप से फ़रमाया है कि
“सच्चा खुशहाल वह है जो अपनी माँ के पेट में ही खुश था, और दुरभागी वह है जो अपनी माँ के पेट में ही दुखी था ।” इस स्पष्ट इर्शाद और लाफ़ानी सच्चाई के बाद, इस्लाम के खिलाफ़ क़ुफ़्र की जंग, मुसलमानों के खिलाफ़ इस्लाम-दुश्मन आंदोलनों का जोर और इस्लाम के खिलाफ़ पश्चिमी मीडिया का शोर, चिंता का कारण हो सकता है, लेकिन इस्लाम के बारे में किसी त रह की निराशा नहीं हो सकती। इस्लाम में एकता पर ख़ास जोर दिया गया है। संख्या या हुजूम कभी भी किसी मसले का हल नहीं हो सकता, न पहले था, न आज है। लेकिन एकता, इत्तिफ़ाक, इत्तिहाद,, सच्चा जज़्बा, नेक और मजबूत इरादे, शाहीन-सिफ़त इस्तक़ामत और फौलादी ज़ेहनीयत (जो एक ज़िंदा मज़हब की ख़ासियत है) की हर दौर में अहमियत रही है।
इस्लाम की शानदार शिक्षाओं पर चाहे जितने भी आरोप लगाए जाएं, शरीयत-ए-मोहम्मदी का चाहे जितना भी मज़ाक उड़ाया जाए, क़ुरआन में परिवर्तन की जितने भी योजनाएं बनाई जाएं, पिछले नबियों की शान में जितनी भी गुस्ताख़ियाँ की जाएं, नेक लोग और इस्लाम की दावत देने वालों के दामन पर जितने भी इल्ज़ाम और आक्षेप लगाए जाएं, इस्लाम पर कोई आंच नहीं आ सकती और शरीयत पर कोई भी धब्बा नहीं लग सकता, क्योंकि यह इस्लाम की फ़ितरत है कि इसे दबाने, मिटाने और नष्ट करने के जितने भी प्रयास किए जाएंगे, उतना ही इसमें उभार होगा। काफ़िरों के हमलों के बाद जब भी बादल छटेंगे, और हवा का रुख बदलेगा, तो इस्लाम का सूरज अपनी सारी आभा और चमत्कारी किरणों के साथ उगकर यह संदेश देगा, "जितना दबाओगे उतना ही उभरेगा," और यह चुनौती भी देगा कि….
"आसान नहीं मिटाना नाम औ निशान हमारा"
विचारशील और जागरूक व्यक्तियों पर यह सत्य स्पष्ट होगा कि शुरुआती दौर से ही इस्लाम के खिलाफ झूठी और नकारात्मक विचारधाराएँ उठती रही हैं, बढ़ती रही हैं और नष्ट होती रही हैं। जैसा कि पहले ख़लीफा(हज़रत अबू बक्र) के दौर से लेकर आज तक हजारों इस्लाम विरोधी साजिशें उठीं और समाप्त हो गईं। कितने ही
मुसैलिमा क़ज़ाब, अस्वद अन्सी, तलिहा असदी, सजाह बिन्त हारिस, मुघीरा बिन सईद, बयान बिन समआन, सालिह बिन तरिफ़ बरघ़वाती, इसहाक अखरस, उस्ताद सिस ख़ुरासानी, अली बिन मुहम्मद खारिज़ी, मुख़्तार बिन उबैद थक़फ़ी, हमदान बिन अशअत क़र्मती, अली बिन फ़ज़ल यमनी, अब्दुलअज़ीज़ बासंदी, अबू तिब अहर बिन हुसैन, अब्दुल हक़ मरी, बायज़ीद रोशन जलंधरी, मीर मुहम्मद हुसैन मशहदी, ज़क़रिया बिन माहिर, याहया बिन ज़क़रिया, अबू अली मंसूर, नवेद कामरानी, असगर बिन अबू अलहसीन, रशीदुद्दीन अबू अलहश्र, मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह तूमरत, इब्न अबी ज़क़रिया, महमूद वाहिद ग़िलानी, अब्दुल हक़ बिन सबईन, अब्दुल्लाह रायि और अब्दुलअज़ीज़ त्रैबलसी जैसे क़ज़ाबों, झूठे और नबूवत के दावे करने वाले लोग पैदा हुए और नष्ट हो गए। हसन बिन सबाह और तातारी फितने आए और फिर कचरे की त रह बहकर नष्ट हो गए। ईसाई और यहूदी लाबियों ने इस्लाम के खजाने को हजारों बार जलाने की कोशिश की और खुद ही राख हो गए।
इन स्पष्ट सच्चाइयों के बाद अल्लाह तआला की हिकमत-ए-बालिग़ा 'وَأَنْتُمْ اَلْأَعْلَوْنَ إِن كُنتُمْ مُؤْمِنِينَ' (और तुम ही ऊँचे हो अगर मोमिन तुम हो तो) को दिल और दिमाग में मजबूत करके, ग़ौर-ओ-फ़िक्र की जरूरत है कि हम कहां जा रहे हैं, कहां कहां ठोकरें खाई हैं, हमारा हल और हमारी मंजिल कहां है और वह जहाज़ जिस पर हम सवार हैं, किस दिशा में जा रहा है।
‘ख़तम-ए-नबूवत’ का विषय इस्लाम के महत्वपूर्ण और बुनियादी आस्थाओं में से है, हर मुसलमान के लिए यह जरूरी है कि वह अल्लाह तआला की एकता और रसूलुल्लाह ﷺ की ख़त्म नबूवत पर पूरा यकीन रखे, इसी त रह से आप ﷺ पर नाज़िल हुआ हदीत का पैगाम क़ुरआन करीम को ख़ातम अल-किताब, आप ﷺ की मस्जिद को ख़ातम अल-मसाजिद और आपकी उम्मत को ख़ातम अल-उम्मम जाने और ज़बान और दिल से इसका इकरार करे।"
"ख़त्म-ए-नबूवत का मुनक़िर उम्मत के इत्तेफाक के अनुसार काफिर है, दुनिया में जिन बुरे दिमाग वालों ने रसूलुल्लाह ﷺ की नबूवत और रिसालत के बाद अपने नबी, रिसूल, या महदी और मसीह होने के दावे किए, वे सभी शैतानी तहरीक के ताने-बाने हैं।
रसूलुल्लाह ﷺ की मिसाल उस महल की सी है जिसे बड़ी खूबसूरती से सजाया और संवारा गया, लेकिन इसके अंदर एक ईंट का स्थान छोड़ दिया गया। लोग इस खूबसूरत महल को देखकर कारीगरों की कला की तारीफ करते हुए यह भी कहते हैं कि यह एक ईंट क्यों नहीं रख दी गई, ताकि यह महल पूरा महसूस होता। नबूवत का यह शानदार महल आपकी पवित्र शख्सियत से पूरा हुआ, और नबूवत के इस भव्य महल की अंतिम ईंट आपकी बर्कात वाली शख्सियत ठहरी।
ان مثلی ومثل الانبیاء من قبلی کمثل رجل بنی بیتاً فاحسنہ واجملہ الاموضع لبنۃ من زاویۃ فجعل الناس یطوفون بہ ویعجبون لہ ویقولون ھلا وضعت ھذی اللبنۃ وانا خاتم النبیین ۔(بخاری ،مسلم ،نسائی ،ترمذی )
"क़सर-ए-नबूवत" आपकी पवित्र शख्सियत से पूरा हुआ, और नबूवत का यह शानदार महल आपकी पवित्र शख्सियत के साथ समाप्त हुआ।कंज़ुल उम्माल, इब्न अबी हातिम और मसनद अहमद में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के उक्त बयान में यह शब्द भी मौजूद हैं।
"فَكُنتُ أَنَا سَدَّدْتُ مَوْضِعَ اللَّبِنَةِ وَخَتَمَ بِيَ النَّبِيُّونَ وَخَتَمَ بِيَ الرُّسُلُ"
तो मैंने ही ईंट की जगह को भरा और मेरे बाद पैगंबरों का सिलसिला समाप्त हुआ और मेरे बाद रसूलों का सिलसिला भी समाप्त हुआ।
हज़रत मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़त्म-ए-नबूवत पर दर्ज़नों हदीस किताबों में मौजूद हैं, और इसी त रह, क़ुरआन करीम की सैकड़ों आयतें भी स्पष्ट शब्दों और अर्थों के साथ मौजूद हैं। इसलिए, एक शाश्वत सत्य से इंकार या आँखें मूँदना, और तवीलात (अर्थों का फेरबदल) व तलबीसात (गलतफ़हमियाँ फैलाना) सिर्फ़ समझ की कमी का नतीजा है।
हालाँकि, मुनक़िर-ए-ख़त्म-ए-नबूवत का एक लंबा और स्थायी इतिहास है (जिसे इल्म और दानिश के मालिकों को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए), फिर भी उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक भाग में क़ादियान से एक नया फितना उत्पन्न हुआ, जिसे 'फितना-ए-क़ादियानियत' कहा जा सकता है।
किसी भी आंदोलन के पीछे अगर व्यक्तिगत और भौतिक लाभ कार्यरत हों, तो वह आंदोलन बिखरता, मिटता और सिमटता चला जाता है। चूंकि अंग्रेजों की खुशामद, तामील, चापलूसी, सत्ता की हवस, सुनहरे सिक्कों की चमक और धन-दौलत की लालच में उत्पन्न होने वाली यह जमात अंदरूनी कलह और विघटन का शिकार होकर कई धड़ों में बंट गई। 'लड़ाओ और शासन करो' का सिद्धांत अपनाने वाली उपनिवेशवादी शक्तियां यही चाहती थीं। इस प्रकार, ज़हीरुद्दीन अऱूपी ने मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी को शरियत (कानूनी) के नबी और रसूल मानकर एक अलग जमात बना ली, जबकि मिर्ज़ा महमूद ने खुद को गैर-शरियत नबी घोषित कर अपना अलग गढ़ स्थापित कर लिया। इसके बाद, मोहम्मद अली लाहोरी ने मसीह मावूद और महदी मावूद का लेबल लगाकर अपनी अलग राह पकड़ी। vइन सभी का एक ही उद्देश्य और सामान्य मान्यता है – मुसलमानों को अपने जाल में फंसाना, इस्लाम की बदनामी करना और दूसरों को उल्लू बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना।
"क़ादियानियत की सही और सच्ची तस्वीर को समझने के लिए क़ादियानी साहित्य और क़ादियानियों के रिश्तों व रस्मों से भी अवगत होना ज़रूरी है। क़ादियानियों का असल उद्देश्य सिर्फ़ यह है कि भौतिक संपत्ति प्राप्त करने के लिए इस्लाम को 'ब ली का बकरा' बना दिया जाए। चूंकि सियोनवाद की शिक्षा और सियोनी उद्देश्यों में जो सहयोग क़ादियानियों ने दिया है, वह कोई छिपी हुई बात नहीं है। धर्मिक समझ रखने वालों पर भी यह बात छुपी नहीं है कि क़ादियानियत दरअसल सियोनवाद की एक नक़ल है। प्रोफेसर ख़ालिद शब्बीर साहब ने तहरीक-ए-ख़त्म-ए-नबूवत के तरजुमान 'नक़ीब-ए-ख़त्म-ए-नबूवत' में लिखा है कि….
“इस्लामी आस्थाओं में तहरीफ (बदलाव) और ईसाईयत की नकार के साथ-साथ क़ादियानियों ने अपनी लिखाई के ज़रिए यहूदी धार्मिक विचारों का पुनर्निर्माण किया है। क़ादियानियों ने यहूदियों को खुश रखने के लिए जहां मुसलमानों के दिलों को चोट पहुँचाई, वहीं उन्होंने यहूदियों की ख़ुशी के लिए और सियोनियों से नज़दीकी हासिल करने के लिए हज़रत ईसा अलेहिस्सलाम पर वे तमाम आरोप लगाए, जो यहूदी पहले दिन से हज़रत ईसा अलेहिस्सलाम पर लगाते आए हैं। क़ादियानियों ने इस सिलसिले में हज़रत मरियम अलेहिस्सलाम को भी नहीं छोड़ा, जिनके पवित्रता और सम्मान की गवाही क़ुरआन करीम से भी मिलती है। मिर्ज़ा क़ादियानी ने यहूदियों की नकल करते हुए हज़रत ईसा अलेहिस्सलाम के दर्जे को कम करने के लिए हर त रह की कोशिश की और अपनी शान को हज़रत ईसा अलेहिस्सलाम से बढ़ाने के लिए ज़मीन-आसमान के जोड़ बना दिए। इन सभी जुर्रतों का मकसद सिर्फ और सिर्फ यह था कि सियोनवाद से नज़दीकी हासिल की जाए, उनका विश्वास जीता जाए, और उनकी वित्तीय सहायता से क़ादियानियत के प्रचार के रास्ते खोले जाएं, ताकि मुस्लिम देशों में यहूदी साज़िशों को सफल बनाने के लिए काम किया जा सके।"
"हज़रत अलामा इक़बाल समेत अरब दुनिया के इस्लामी विद्वानों का भी यही ख़याल है। चूंकि अब्बास महमूद अल-अक्काद, शेख अबू ज़हरा, शेख महबूबुद्दीन अल-खतीब, शेख मुहम्मद अल-मदनी जैसे परिपक्व दृष्टि वाले उलामा का कहना है कि क़ादियानियत और सियोनवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और यह तहरीक उपनिवेशवाद की एक शाखा है।"
(नक़ीब-ए-ख़त्म-ए-नबूवत)
यह भी एक हकीकत है कि इस्लाम को जितना नुकसान मुसलमानों से हुआ है, शायद उतना किसी अन्य कौम से नहीं हुआ। शैतान मल'ऊन ने मुसलमानों की एक बड़ी जमात को विभिन्न तवीलात और तल्बीसात के ज़रिए राह-ए-मस्तकीम से भटकाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, क्योंकि शैतान ने अल्लाह तआला से इन्साननों को बहकाने और राह-ए-रास्त से हटाने की इजाज़त ले ली थी और अल्लाह तआला से अर्ज़ किया था,
"قال رَبّ فَانظُرْنِي إِلَىٰ يَوْمِ يُبْعَثُونَ"
और शैतान लईन की इस दुआ पर अल्लाह तआला ने जवाब दिया था,
"فَإِنَّكَ مِنَ ٱلْمُنظَرِينَ إِلَىٰ يَوْمِ ٱلَوْقِتِ ٱلْمَعْلُومِ"
। फिर शैतान ने अपने अरादों और इरादों को ज़ाहिर करते हुए कहा,
"قَالَ فَبِعِزَّتِكَ لَأُغْوِيَنَّهُمْ أَجْمَعِينَ إِلَّا عِبَادَكَ مِنْهُمُ ٱلْمُخْلَصِينَ"
। फिर अल्लाह तआला ने शैतान और उसकी नस्ल को धमकी-आमेज़ लहजे में फरमाया,
"قَالَ فَٱلْحَقُّ وَٱلْحَقَّ أَقُولُ لَأَمْلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنْكَ وَمِمَّن تَبِعَكَ مِنْهُمْ أَجْمَعِينَ" (प. २३, स.)
"मौजूदा दौर की इस्लाम दुश्मन तहरीकात, काफिरों और यहूद की नई नई साज़िशें, हिंदुओं की इस्लाम दुश्मन सरगर्मियाँ, ईसाई तख़रीबी कार्रवाइयाँ, अपने ही लोगों की दिल आज़ारियाँ, बाअतिल मन्सूबा बंदियाँ, मुसलमानों को इस्लाम से बदज़न और बर्गष्टा करने की हिकमत-ए-अमली, महज़ दौलत के हुसूल, इक्तदार के लालच, शौहरत के धोके, और अना की वक़्ती तस्कीन के लिए ग़ैरत और हिम्मत के जनाज़े निकालने का एक न खत्म होने वाला सिलसिला अस्तित्व में आ चुका है। ज़रा ज़रा सी बात पर अपनी जमातें और तंजीमें बनाने की ज़ोर-ज़बरदस्ती में मेंडकों की शोर की त रह बढ़ रही है। इस्लाम के नाम पर इस्लाम को ख़त्म करने वाली अनगिनत तंजीमें और तहरीकें अस्तित्व में आ चुकी हैं। कुछ लोग फुरुआ'त (छोटे मसाइल) को लेकर मैदान में कूद पड़े हैं, कुछ ने मसाइल के बाज़ार में फज़ाइल (उत्कृष्टताएँ) की दुकानें चमकानी शुरू कर दी हैं। वो उम्मतें, जो एक-दूसरे की अज़ली दुश्मन थीं (और अंदरूनी तौर पर अब भी हैं), लेकिन इस्लाम और मुसलमानों को ज़ीरो करने के लिए अब एक हो चुकी हैं। ईसाई कभी यहूदियों के ख़ैर-ख्वाह नहीं हो सकते, और यहूदी हमेशा ईसाईयों के बद-ख्वाह रहेंगे — ये क़ुरआन की गवाहियाँ हैं। लेकिन आज ये दोनों उम्मतें सर मिलाकर, पुरानी रंजिशें भुलाकर, इस्लाम के खिलाफ एकजुट हो चुकी हैं और पर्दे के पीछे ये मन्सूबे भी बना रही हैं कि इस्लाम के क़िलें में आक्रमण करने के लिए घर के भेदी और मकान के मक़ीन सख़त साबित होंगे। इसलिये मुसलमानों ही के तबक़े से कुछ बे-ज़मीर अफ़राद, अ़ग़्यार की साज़िशों का शिकार होकर इस्लाम को नु्क़सान पहुँचाते रहे हैं। शाह फैसल ( रह.) के क़ातिल, जमाल और क़माल के फ़र्सूदा और विस्मृत विचार, जनरल ज़िया की मौत, उत्तरी इत्तिहाद के स्याह कारनामे, कुर्दों के बाग़ी रूख, अल-फ़त्ह के जांबाज़ों की दरंदगी, दीर-इस्सीन का मक्तल, सुक़ूत-ए-कोर्तोबा और ग़र्नाता, अफ़ग़ानिस्तान, मिस्र, लेबनान, जॉर्डन, सूडान और फ़लस्तीन में तवाहियाँ, जाफ़र और सादिक की ज़मीर-फरोशियाँ, मशरिक़ी पाकिस्तान की ग़रब-ए-पाकिस्तान से कशीदगियाँ, अफ़्रीकी ममालिक में इस्लामी नस्ल के ख़त्म करने की साज़िशें और मुख्तलिफ़ इस्लामी ममालिक के हुकमरानों की ऐश-परस्ती, रौशन दिल और रौशन फिक्र रखने वालों से छुपी नहीं हैं। और आज इस्लाम को हक़ीकी मानी में अपने ही लोगों की बे-तवज्ज़ो और घ़फ़लत से नुक़सान पहुँच रहा है
दक्षिण एशिया में गलत या झूठी विचारधाराओं और आंदोलनों का प्रभाव
"दक्षिण एशिया (जैसे भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश) में विभिन्न त रह की ग़लत या नकली विचारधाराएँ और धार्मिक आंदोलनों का प्रभाव बढ़ा हुआ है। इसके पीछे यह कारण बताया गया है कि यदि कहीं इस्लाम की सही और वास्तविक तस्वीर मिल सकती है, तो वह दक्षिण एशिया में ही है।
झूठे धर्म और मत (जैसे यहूदी, ईसाई, आदि) नहीं चाहते कि इस्लाम अपनी सही पहचान के साथ सामने आ सके। इसलिए, वे धन, सत्ता और सोने-चांदी के लालच देकर मुसलमानों के बीच फूट डालने की कोशिशें करते हैं, जो पहले की त रह अब भी जारी हैं।
"खत्म-ए-नबूवत (पैगम्बरी की अंतिमता) का इनकार करने वाला कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कहीं भी हो, काफिर है, इस पर उलेमाओं का इत्तेफाक है। लेकिन यह समझना कि खत्म-ए-नबूवत के इनकार करने वाले केवल क़ादियानी ही हैं, यह गलत है। वर्तमान समय में क़दीयानी समुदाय के अलावा भी एक ऐसा वर्ग है जो योजना बनाकर और पूरी गोपनीयता के साथ खत्म-ए-नबूवत का इनकार करता है। जैसे कि किताब
अल-हुकूमतुल इस्लामिय्या (الحکومۃ الاسلامیۃ) में लिखा गया है:
'हमारे धर्म की आवश्यकताओं में यह शामिल है कि कोई भी फरिश्ता और रसूल हमारे बा रह इमामों की महानता का मुकाबला नहीं कर सकता।'
(अल-हुकूमतुल इस्लामिय्या (الحکومۃ الاسلامیۃ) पृष्ठ : 40)"
"किताब हुकूमत इस्लामिया (الحکومۃ الاسلامیۃ) में एक दूसरी जगह लिखा है कि
'तमाम अंबिया हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सहित दुनिया में अदल व इंसाफ के उसूलों की तालीम देने और समानता क़ायम करने में नाकाम रहे।'
(तामीर-ए-हयात लखनऊ 10/अगस्त 1980)
"उपरोक्त दोनों उद्धरणों के समर्थक शिया मज़हब के सरखील ख़ुमैनी साहब हैं और नीचे उन्हीं के प्योरकार मिर्ज़ा बाकिर मज़लिसी की सोच मुलाहिज़ा फरमाएँ।
'जब बा रहवां इमाम ज़ाहिर होगा तो सर से पाँव तक नंगा होगा और दुनिया उसके हाथ पर बैअत करेगी। सबसे पहले जो शख्स उसके हाथ पर बैअत करेगा वह मुहम्मद रसूल अल्लाह होंगे (मआज़ अल्लाह)
(हकुल यक़ीन पृष्ठ 2/207)"
इसी त रह, एक और शिया लेखक मोहम्मद बिन मसूद अयाशी के द्वारा यह ग़लत और अपमानजनक कथन आया है:
’’हज़रत अक़रम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़ाहिर और बातिन में विपरीतता थी ‘‘
(तफ़्सीर अयाशी २/१०१)
इसके अलावा, एक और किताब
’’हयातुल कुलूब‘‘ में यह लिखा है:
’’जिस पैगंबर ने अली रज़ीअल्लाहु अन्हु की विलायत को स्वीकार करने में संकोच किया, उसे अल्लाह ने सज़ा दी‘‘
(हयातुल कुलूब, उर्दू अनुवाद, १/५६८)
शिया लेखकों ने रसूल अल्लाह सलल्लाहु अलैहि वसल्लम की पवित्र शख्सियत पर कीचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, और मैं केवल एक उद्धरण प्रस्तुत करता हूँ ताकि स्पष्टता हो सके।
"पैगंबर हज़रत अली (रज़ी अल्लाह अन्हु) के दर के भिखारी हैं"
(खिलअत तबराईया, 1/102)।
यह कुछ उदाहरण उस इस्लामी समूह के हैं, जो इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को धोखा देने का काम कर रहे हैं। लेकिन अगर गहराई से शोध किया जाए, तो अन्य धर्मों में भी ऐसे लोग मिल सकते हैं, जो नबूवत के अंत का इनकार करने वाले हैं और जिनके द्वारा हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पवित्र शख्सियत पर तंज और अपमान किया जाता है। ये लोग अपने चेहरों पर इस्लाम का मुखौटा और अपनी पेशानी पर "मुसलमानी" का लेबल लगाए होते हैं, लेकिन उनके आचार और विचार में विरोधाभास, मन के अंधकार, शब्दों की बेबसी और सोच की जड़ को समझकर, बुद्धिमान लोग सच्चाई का अहसास कर सकते हैं। इनकी धोखाधड़ी और चालाकियों के पर्दे को हटाकर, उनके असली चेहरे सामने लाए जा सकते हैं और आसानी से इनके दिखावे और नफरत भरे आचरण का पर्दाफाश किया जा सकता है।
मज़ाहिर उलूम सहारनपुर जो इस्लाम का एक पुराना और मजबूत किला है, दीन-ओ-तालीम का एक महान केंद्र और तसव्वुफ़ का स्रोत और झरना है, इस आकाश के बा दल ज्ञान और फ़ज़ल में गरजने से ज्यादा बरसने पर तवज्जो देते हैं। उनके अंदर खलूस (सच्चाई) और इलाहीयत (ईश्वर से जुड़ी भावनाएँ) तथा इत्तिगनाअ और बेनीयाजी (स्वावलंबन) इस क़दर समाई रही है कि उन्होंने अपने नाम से ज्यादा अपने काम पर ध्यान केंद्रित किया और पूरी दुनिया उनके ईमानी सच्चाई और निष्कलंक इरादों से महकने लगी।
सादगी और क़नाअत (संतोष) की मिसाल, साथ ही साथ आध्यात्मिक, तालीमी (शैक्षिक), अखलाकी (नैतिक), दावत और तबलीग़ी (प्रचारक) सेवाओं का संपादन करते हुए, उन्होंने कई त रह की नफ़्सीयत (स्वार्थ) और शारीरिक आवश्यकताओं से परे रहकर कार्य किया। उन्होंने बुरे और ग़लत आंदोलन का मुकाबला तंगी और अभाव के बावजूद किया। जब काफ़िर और बिदअत (नवीन आस्थाएँ) की हवाएँ तेज़ हो गईं, नए-नए षड्यंत्रों ने खतरनाक रूप इख़्तियार कर लिया, शुद्धी संगठन और आर्य समाज ने अपने तमाम दरवाजे खोल दिए, और मुसलमानों की एक बड़ी तादाद ईसाई मिशनरी के साथ मिलकर कुफ़्र के रास्तों पर चल पड़ी, तो दावत के काम को तेज़ करने के लिए अंजुमन हिदायत उर-रशीद नामक एक संगठन स्थापित किया।
इसलिए ,1349 हिजरी में मदरसा की सालाना रूदाद में उस समय के इस्लाम विरोधी माहौल, काफ़िर षड्यंत्रों, नास्तिक और मुशरिक गतिविधियों और ईसाई और शुद्धी योजनाओं को इन शब्दों में बयान किया गया….
नाज़रीन-ए-कराम! इस्लाम के दुश्मनों की मौजूदा गतिविधियों ने मुसलमानों की तकलीफों में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। अगर एक तरफ़ ईसाईयत का बढ़ता हुआ सैलाब और शुद्धी वगै रह की फितना बर्पा करने वाली आंधी है, तो दूसरी तरफ़ मिर्ज़ाईयत, शिया और दूसरे बुत-परस्तों का शर्र-आंगेज़ सैलाब है। इस्लाम के तमाम विरोधी खुल्लम-खुल्ला दिन रात इसी फ़िक्र में अपनी पूरी ताकत बिना किसी झिझक के लगा रहे हैं कि इस्लाम को न सिर्फ़ हिंदुस्तान से, बल्कि दुनिया के पन्नों से भी मिटा दिया जाए । शुद्धी समाचार दिल्ली के मई 1930 के पत्र में 1929 के मुर्तदों(जो व्यक्ति इस्लाम छोड़कर किसी अन्य धर्म को अपनाता है)की जो सूची दर्ज है, उससे मालूम होता है कि शुद्धी सभा दिल्ली और उसकी दूसरी शाखाओं ने 4017 मुसलमानों को मुर्तद बना दिया है। ख़ुदा करे कि यह ग़लत हो। इस सिलसिले में शुद्धी सभा को 1929 में जो आमदनी हुई, वह बाईस हज़ार एक सौ चव्वन रुपये आठ आना है। हालांकि इस होश उड़ा देने वाली ख़बर को सुन कर हर मुसलमान अपनी मज़हबी ग़ैरत से बेचैन नज़र आएगा, लेकिन घटनाएँ बता रही हैं कि मुसलमानों की व्यवहारिक स्थिति से स्थिरता दूर होने की उम्मीद कम है। अब हर मुसलमान का कर्तव्य है कि वह अपनी धार्मिक जिम्मेदारी को समझते हुए, अपनी क्षमता के अनुसार, धर्म से विमुखता की आग को बुझाने में और मुसलमानों की नैतिक एवं धार्मिक सुधार में पुरुषार्थ के साथ बाहर निकलकर संघर्ष का झंडा ऊँचा करें और लेखन, भाषण और अन्य माध्यमों से इन फितनों (विचारों) का नाश करें और अगर आप अपनी मजबूरियों के कारण ऐसा नहीं कर सकते, तो ऐसी संस्थाओं की आर्थिक मदद आपके ऊपर फ़र्ज़ है जो बड़े मेहनत और निष्ठा से धर्म का प्रचार और धार्मिक सेवाएँ अंजाम दे रही हैं।
अंजुमन हिदायत-उर-रशीद के निर्माण का उद्देश्य हज़रत मौलाना नसीम अहमद ग़ाज़ी मज़ाहिरी मदज़िल्लाह के गहरे और स्पष्ट शब्दों में:
"मज़ाहिर-उलूम सहारनपुर की स्थापना इस्लाम की रक्षा और उसकी अखंडता के लिए उस समय हुई थी, जब भारत में अंग्रेज़ी शासन अपनी पूरी ताकत और अत्याचार के साथ क़ायम था, और इस्लाम और मुसलमान खतरों में फंसे हुए थे। शासन ने इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ कई साजिशें तैयार की थीं और हर दिशा से बुतपरस्त अपनी बातों, लिखाई और योजनाओं से इस्लाम पर हमलावर थे। इसलिए मज़ाहिर-उलूम के प्रमुख विद्वान पहले दिन से ही इन साजिशों और ग़लत धारणाओं के खिलाफ़ संघर्षरत थे और इनसे निपटने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। यहाँ पर धार्मिक शिक्षा लेने वाले छात्रों को उपदेश, तक़रीर, दावत और प्रचार-प्रसार, और वाद-विवाद और बहस की शिक्षा दी जाती थी।" (हयात-ए-असद)
"इस प्रकार, आदरणीय छात्रों ने पूरी लगन और उत्साह के साथ अपनी शैक्षिक क्षमता को बढ़ाने के साथ-साथ झूठे विचारधाराओं से मुकाबला करने के लिए लेखन और भाषण में कड़ी तैयारी की और अवसर के अनुसार अपनी अध्ययन शक्ति और अच्छे प्रशिक्षण के गुणों को प्रदर्शित किया... 1304 हिजरी में सहारनपुर में हुए एक वाद-विवाद की विस्तार से जानकारी मदरसा की रिपोर्ट में निम्नलिखित शब्दों में प्रकाशित की गई:
'इस ज्ञान का लाभ सहारनपुर शहर के निवासियों को पूरी त रह से समझ में आ गया है, क्योंकि जो वाद-विवाद पिछले वर्ष मदरसा के छात्रों और उनके विरोधियों के बीच हुआ था, वह सभी के लिए स्पष्ट है कि कैसे मदरसा के छात्रों ने अपने विरोधियों को कड़ा जवाब दिया और बार-बार बातचीत में सभी झूठे धर्मों के अनुयायियों को चुप कर दिया। जिसके कारण विरोधी तंग आ गए और अपना उपदेश बंद कर दिया और इस्लाम के सिद्धांतों को स्वीकार किया। और जब इस्लाम और मुसलमानों की सत्यता तथा विरोधी धर्मों का झूठा होना स्पष्ट हो गया, तो एक समूह ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया। इस ज्ञान का सहारनपुर को कितना लाभ हुआ, यह स्पष्ट है, क्योंकि जो उद्देश्य ज्ञान से और मदरसे से था, वही उद्देश्य इस मदरसे से प्राप्त हुआ।' (मदरसा की रिपोर्ट, 1305 हिजरी, पृष्ठ 11)
संस्था की स्थापना और इसके कार्यप्रणाली पर प्रकाश डालते हुए हज़रत मौलाना नसीम अहमद गाज़ी मज़ाहिरी ने लिखा है।
"इसके बाद, परिस्थितियाँ धीरे-धीरे और भी गंभीर होती गईं और इस अभियान की महत्वता में भी वृद्धि हुई। कुछ समय बाद, मदरसा के जिम्मेदार लोगों ने यह महसूस किया कि अब केवल इस मेहनत पर संतुष्ट रहना उचित नहीं है। जब तक विशेष रूप से प्रशिक्षित और धार्मिक चर्चा तथा वाद-विवाद में पूरी त रह से माहिर व्यक्ति नहीं होंगे, तब तक नई-नई भ्रांतियों के खिलाफ संघर्ष और सफल लड़ाई लड़ना मुश्किल होगा। इन कारणों और प्रेरणाओं के चलते 22 जुमाद-उल-उला 1330 हिजरी (1913 ई.) को "अंजुमन हिदायत-उल-रशिद" की स्थापना की गई। यह वह समय था जब भारत में एक बड़ा उथल-पुथल मचा हुआ था। आर्य समाज और शुद्धि संघ की आंदोलनों ने मुसलमानों के धर्म और आस्था पर जोरदार हमले किए थे। शक्ति, बल, धन और धोखाधड़ी के द्वारा सीधे-सादे मुसलमानों को काफिर और धर्मत्यागी के गर्त में धकेल दिया जा रहा था। मुल्क के धर्मपरायण लोग और तौहीद के समर्थक अपनी पूरी क्षमता और सीमाओं के अनुसार इस पर काबू पाने की कोशिश कर रहे थे। सही मार्गदर्शन देने वाले उलामा और सूफी संत उपदेशों और वाद-विवाद के माध्यम से धर्म की रक्षा कर रहे थे। धार्मिक संस्थाएं और इस्लामी स्कूलों के बड़े और जिम्मेदार लोग शैक्षिक और अनुसंधान दृष्टिकोण से प्रभावित क्षेत्रों में मिशन भेजकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर रहे थे। जमीयत उलामा-ए-हिंद, दारुल उलूम देवबंद और खानकाह थाना भवन के बड़े व्यक्तित्वों ने अपनी पूरी मेहनत और ध्यान से इस खतरनाक लहर को रोका। इस अवसर पर, मुझाहिदीन-ए-इस्लाम ने भी अपने अनुयायियों को मैदान में उतार दिया और उन्होंने इन फितनों का मजबूती से मुकाबला किया। उपदेश, भाषण, दावत और प्रचार, बहसों और वाद-विवाद के माध्यम से तथा किताबों और लेखों के द्वारा और स्कूलों और मदरसों की स्थापना कर एक नई क्रांतिकारी आत्मा फूंकी और इन झूठी आंदोलनों को नष्ट कर दिया।
इमाम रबानी हज़रत गंगोही के नाम से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए इस संस्था का नाम "अंजुमन हिदायत-उल-रशिद" रखा गया।"
مژدہ اے دل کہ مسیحا نفسے می آید
کہ زِنفاس خوشش بوئے کسے می آید
"ए दिल! खुशखबरी है कि एक मसीहा जैसे सांस लेने वाला आ रहा है,
क्योंकि उसकी श्रेष्ठ सांसों से किसी की खुशबू आ रही है।"
यह फ़ारसी और उर्दू का अंश हिंदी में इस प्रकार अनुवादित होगा:
"शेख-उल-इस्लाम हज़रत मौलाना हाफ़िज़ सैयद अब्दुल लतीफ़ साहब रह नाज़िम-ए-आला, मज़ाहिर उलूम सहारनपुर इस के अध्यक्ष थे।
शेख-उल-मशाइख़ हज़रत मौलाना अब्दुर्रहमान साहब क़ामिलपुरी रह नाज़िम, हज़रत मौलाना शाह मोहम्मद असदुल्लाह साहब रह हज्जतुल-इस्लाम और रईसुल-वाइज़ीन हज़रत मौलाना मोहम्मद ज़करिया साहब क़ुदोसी गंगोही रह नायब नाज़िम थे। लेखन और प्रचार कार्यों की निगरानी तथा वार्षिक आंकड़ों की व्यवस्था रईसुल-मुनाज़िरिन हज़रत मौलाना नूर मोहम्मद ख़ान रह मुनाज़िर मदरसा के ज़िम्मे थी।" (हयात-ए-असद, पृष्ठ 279)
विवेचन और भाषण में हज़रत मौलाना मोहम्मद ज़करिया क़ुदोसी रह, हज़रत मौलाना अहमद अली अगवानपुरी रह, हज़रत मौलाना अमीर अहमद कांधलवी रह, हज़रत मौलाना ज़रीफ अहमद पूरकाज़वी रह और मुफ़्ती-ए-आज़म हज़रत मुफ़्ती सईद अहमद अजाड़वी रह ने अविस्मरणीय कार्य किए।
उस समय की इस्लाम-विरोधी साज़िशें, काफ़िरों की धमक, मुसलमानों का जड़त्व और निष्क्रियता, उनकी लापरवाही, उनके इमानी जज़्बे और ठंडक, और अज्ञानता का संक्षिप्त चित्रण तथा 'अंजुमन हिदायत-उल-रशिद' की सेवाओं और उद्देश्यों पर आधारित एक संक्षिप्त पुस्तिका में इस प्रकार चित्रित किया गया है।"
"आजकल शुद्धि और संघटन की वर्तमान गतिविधियाँ मुसलमानों की जान और माल से गुजरते हुए उनके ईमान और इस्लाम पर अत्यंत शर्मनाक हमले कर रही हैं, और धर्मत्याग का यह वैश्विक फितना मुसलमानों के जातीय और धार्मिक जज़्बात को इस हद तक आहत कर चुका है कि उसका इलाज निश्चित रूप से असंभव प्रतीत होता है। विशेष रूप से आर्य समाज जैसे जुझारू और भ्रमित विचारधारा वाले संगठन ने शुद्धि और संघटन के तहत मुसलमानों और उनके सच्चे मार्गदर्शक (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर सैकड़ों बिना कारण आरोप लगाए, और सादा-लौह और अज्ञानी मुसलमानों को इस्लाम की रोशनी से निकाल कर काफ़िरों के अंधकार में डालने की कोशिश की।
लेकिन अफसोस, मुसलमानों की लापरवाही और बेपरवाही में कोई खास फर्क नहीं आया। हाँ, यह जरूर हुआ कि इस्लामिक उलामा की बार-बार आवाज़ें और जागरूकता ने एक बार तत्काल पूरे देश में सैकड़ों संस्थाओं और सभाओं को उत्पन्न किया और वे बहुत सक्रिय हुए, लेकिन अफसोस कि कुछ ही दिनों बाद वे भी मुसलमानों की उपेक्षा का शिकार हो गए। जिनमें से कुछ अब तक जिंदा मुसलमानों की ऊँचाई और करुणा की तरफ़ नज़रें गढ़ाए हुए हैं।
इनमें से एक संस्था 'हिदायत-उल-रशीद' है, जो मदरसा 'मज़ाहिर उलूम' से संबंधित है, जिसके उपयोगी कार्य और इस्लाम के प्रचार की अनमोल सेवाओं ने इसे अपने समकक्षों में विशिष्ट और प्रसिद्ध बना दिया है। राजपूताना के धर्मत्याग को खत्म करने के लिए इस संस्था की संघर्षशीलता और बलिदान इस हद तक लोकप्रिय हुई कि इस काफ़िरों की बस्ती में सैकड़ों काफ़िरों ने अज़ली ईश्वर को अपना मानते हुए सच्चे और मजबूत मुसलमान बन गए, और उनके बच्चों और बच्चियों के लिए अक्सर गाँव में इस्लामी स्कूल और मदरसे स्थापित किए गए।" (ज़िक्र-ए-सईद फ़ी अहवाल-ए-रशीद, पृष्ठ 2)
उद्देश्य और सिद्धांत व नियम"
"अंजुमन हिदायत-उल-रशीद" अपने उद्देश्यों को लागू करने के लिए निम्नलिखित सिद्धांतों पर अमल करती थी:
1. इस्लाम के पवित्र और सच्चे सिद्धांतों को हिदायत के प्यासों के सामने प्रस्तुत करना।
2. आस्थागत समस्याओं की सही और सरल व्याख्या करना और शंका और संदेहों का संतोषजनक समाधान करना।
3. झूठी धर्मों के मुद्दों और विश्वासों को, जो कि स्वस्थ बुद्धि और मानव प्रकृति के खिलाफ हैं, सभ्य शब्दों में स्पष्ट करना और यह बताना कि असली मुक्ति केवल इस्लाम को मार्गदर्शक बना कर ही संभव है। साथ ही यह भी बताना कि इस्लाम की शरण हर सच्चे चाहने वाले के लिए दया और करुणा की शरण है, और प्रत्येक धर्म, जाति और समुदाय का व्यक्ति इसमें प्रवेश कर अपनी पिछली सभी गलतियों से मुक्त हो सकता है।
4. इस्लाम के धर्म का प्रचार लेखन और भाषण के माध्यम से करना।
5. मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा और सेवा करना और उन्हें आपसी भाईचारे का संदेश देना।
6. देश और समुदाय के लिए भाषण देने वालों और वाद-विवाद करने वालों को तैयार करना।"
(रूदाद-ए-मदरसाह, 1349 हिजरी, पृष्ठ 305)
"अंजुमन की सेवाएँ"
इस शुभ अंजुमन की गोद में हज़ारों विद्यार्थियों और उलामाओं ने शिक्षा प्राप्त की और वचन-प्रचार, भाषण और वाद-विवाद में माहिर हुए। इन्होंने देश के कोने-कोने को अपनी उपदेशों से रोशन किया और वाद-विवाद और बहसों के माध्यम से बुरे विश्वास रखने वालों को परास्त किया। यह अंजुमन आज भी जीवित और सक्रिय है।
इस अंजुमन के प्रशिक्षित व्यक्तियों ने, आर्य समाज के कार्यकर्ताओं, क़ादियानियों, रज़ा ख़ानियों, गैर-मुक़ल्लिदों आदि के साथ कई वाद-विवाद किए हैं। जिन प्रचारकों और वाद-विवादियों को अंजुमन द्वारा भेजा गया, उनकी कार्यप्रणाली का विस्तृत रिकॉर्ड मदरसा में सुरक्षित रखा जाता था और वाद-विवादों की रिपोर्टें देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थीं।
नीचे,
मज़ाहिर उलूम के उलेमाओं के वाद-विवादों के विवरण में से केवल एक वाद-विवाद का उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि पाठकगण "भाषाई जिहाद" के इस पहलू से भी परिचित हो सकें।
क़रीम पुर, ज़िला जलंधर का मुनाज़रा: तारीख़ 26/27 ज़िल-हिज्जा 1348 हिजरी
जब क़ादयानियों को अहले-हक़ के कारण शहरों और जागरूक हलकों में अपने मज़हब का प्रचार करना मुश्किल हो गया, तो उन्होंने आस-पास के इलाकों को गुमराह करना शुरू कर दिया। इसी त रह, ज़िक्र किए हुए इलाक़े में भी । वहाँ के सीधे-साधे मुसलमानों ने अपनी समझ के मुताबिक़ इसका मुकाबला किया, लेकिन मुनाज़रे की स्थिति बन गई। क़ादयानियों ने इन लोगों से एक ग़ैर-शरई शर्तों का मसौदा लिखवाया, जिसमें एक शर्त यह भी थी कि इस्लामी मुनाज़रा करने वाला शख़्स 'मौलवी फाज़िल' होना चाहिए। लेकिन अल्हम्दुलिल्लाह, अहले हक़ में इस चीज़ की कोई कमी नहीं थी।
इसलिए, जैसा कि वह चाहते थे, मौलाना रहमत अली साहब लुधियानवी, जनाब मौलाना अब्दुल रहमान साहब (प्रधान अध्यापक, मदरसा), मौलाना मोहम्मद असदुल्लाह साहब (मौलवी फाज़िल, मदरसा मजाहिर उलूम, सहारनपुर), और मौलवी नूर मुहम्मद खान साहब (मदरसै के मुबल्लिग) नवा शहर के लिए रवाना हुए। मुनाज़रा दो चीज़ों पर आधारित था: (1) मिर्ज़ा की सच्चाई और (2) मसीह अलेहिस्सलाम की ज़िन्दगी ।
पहले मुद्दे में क़ादीयानियों के नामी मुनाज़रा कारी मौलवी अल्लाह दत्ता जलंधरी (दावा करने वाला) और मौलाना मोहम्मद असदुल्लाह साहब (एतराज़ करने वाले) के बीच मुनाज़रा हुआ। मौलाना ने मिर्ज़ा साहब के कई दर्जन झूठ और दूसरी क़ुरानी आयतों को पेश कर के मिर्ज़ाइयत का सफ़ाया कर दिया। इस पर क़ादीयानी मुनाज़िर की हालत देखने योग्य थी।
अगले दिन, मौलाना ने मसीह अलेहिस्सलाम की ज़िन्दगी को क़ुरानी आयतों और हदीसों के हवाले से इस अंदाज में पेश किया कि क़ादयानी मुनाज़िर कुछ न कर सके। नतीजा यह हुआ कि 13 क़ादयानियों ने आम सभा में तौबा की और यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। (रूदाद-ए- मजाहिर उलूम सहारनपुर 1349 हिजरी, पृष्ठ 314)
मज़ाहिर उलूम के अक़ाबिर उलामा ने ज़िक्र किए गए कारनामों, सेवाओं, मेहनत, लगन और ख़लूस व इखलास के जज़्बे की वजह से अपनी सेवाओं की कभी दाद प्राप्त नहीं की । जो कार्य किया, वह अल्लाह की प्रसन्नता और ख़ुशी प्राप्त करने और सही धर्म के उत्थान और प्रचार के जज़्बे के तहत किया। अंजुमन हिदायत उर रशीद के हर पहलू में किए गए कार्यों संतुष्ट नहीं हुए, बल्कि और अधिक सेवा के लिए विचार और योजना तैयार करते रहे। शिक्षा के साथ-साथ लेखन और वाद-विवाद पर अपना पूरा ध्यान दिया, (अद्भुत लोगों की एक पूरी जमात तैयार की। स्वयं अंजुमन के मंच से नास्तिकता और झूठे विश्वास, विश्वासघात और पुनः जन्म, बुराई और अनावश्यक रस्में, शिया और बिना तालीम वाले, यानी हर गलत मत, गलत विचार और गलत तरीका का विरोध किया। लेखन, भाषण, उपदेश, वाद-विवाद और चुनौती सभी तरीकों को अपनाकर काफ़िरता के ग़लत विचारों को नष्ट कर दिया और सभी गलत विश्वासों और विचारों की आलोचना इस त रह से की कि झूठी बातें स्पष्ट रूप से बेकार हो गईं। इन सभी सेवाओं और कार्यों को यदि एकत्रित किया जाए तो पूरी पुस्तक तैयार हो सकती है, और इनका विस्तार इन कुछ पन्नों में संभव नहीं है, लेकिन नबी के अंतिम होने के प्रमाण और नबी के अंतिम होने के विरोधियों के खंडन में विद्वानों द्वारा लिखी गई कुछ पुस्तकें इस उद्देश्य से प्रस्तुत की जा रही हैं ताकि पाठक समझ सकें कि प्रमुख विद्वान अपनी सेवाओं को किस त रह निभाते हैं और यहां उन लोगों के दिलों में इस्लाम की रक्षा और सुरक्षा का सही जज़्बा किस त रह विकसित होता है।
एक व्यक्ति ने 1336 हिजरी (1918 ई.) में मज़ाहिर उलूम सहारनपुर के दारुल इफ्ता से एक सवाल किया था, जिसमें पूछा गया था कि मरज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी के भ्रष्ट विचारों, हंसी उड़ाने वाली तफसीरों, अफसोसजनक दावों और शैतानी इलहामात (संदेशों) के बारे में क्या रुख है? इस पर मज़ाहिर के बड़े लोग ने पहले मौके पर निम्नलिखित जवाब दिया:
"सवाल में जो बातें कही गई हैं, उनमें अधिकांश ऐसे मुद्दे शामिल हैं जो मुसलमानों के नज़रिए से पूरी त रह से नाजायज़, कुफ्र (अविश्वास) और इर्तिदाद (धर्मत्याग) का कारण है। इसलिए जो व्यक्ति ऐसा विश्वास रखता हो और इन बातों का पालन करता हो, तो उसके कुफ्र(अविश्वास) में कोई संदेह नहीं है। वह शरीअत के अनुसार मुर्तद (धर्मत्यागी) हो जाएगा, जिसके साथ विवाह जायज़ नहीं रहेगा। और जो पहले से शादीशुदा हो और बाद में क़ादियानी अक़ाईद (क़ादियानी विचारधारा) अपना ले, तो उसका निकाह तुरंत शरीअत के अनुसार बातिल हो जाएगा। इसके लिए क़ाज़ी
"ارتداحدہما (الزوجین) فسخ عاجل بلاقضاء (شامی جلدثانی ص ۴۲۵)"
अगर दोनों में से कोई एक व्यक्ति (पति या पत्नी) इर्तिदाद कर ले, तो उनका निकाह तुरंत ”बिना क़ाज़ी के” रद्द हो जाएगा। (शामी खंड दो, पृष्ठ 425)
لا يجوز أن يتزوج مسلمة الخ، ويحرم ذبيحته وصيده بالكلب، واللعب والرمي (عالمگيري ص 877) " जाएज़ नहीं है उसके लिए कि वह से शादी करे मुस्लिम महिला से, और उसके द्वारा किया गया ज़िबह (जानवर जो हलाल तरीके से काटा गया हो )और कुत्ते से शिकार करना, खेल और तीरंदाजी हराम है। (आलमगीरी पृष्ठ 877)"
लिखा: इनायत इलाही, प्रमुख मदरसा मज़ाहिर उलूम सहारनपुर 19/अप्रैल 1918.
कादयानी सिलसिले में मज़ाहिर उलूम सहारनपुर का यह पहला सामूहिक फ़तवा था। हालात की नज़ाकत और कादयानी छल-कपट को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित अक़ाबिर ए मज़ाहिर ने इस पर दस्तख़त किए।
• हज़रत मौलाना ख़लील अहमद मुहदिस सहारनपुरी रह,
• हज़रत मौलाना साबित अली रह,
• हज़रत मौलाना अब्दुल रहमान कामिलपुरी रह,
• हज़रत मौलाना अब्दुललतीफ पूरकाज़वी रह,
• हज़रत मौलाना अब्दुलवहीद संभली रह,
• हज़रत मौलाना मुमताज़ मीरठी रह,
• हज़रत मौलाना मंज़ूर अहमद ख़ान रह,
• हज़रत मौलाना मुहम्मद इदरीस रह,
• हज़रत मौलाना बदर ए आलम मीरठी रह,
• हज़रत मौलाना अब्दुल करीम नोगानवी रह,
• हज़रत मौलाना फ़सीहुद्दीन सहारनपुरी रह,
• हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद ख़ान रह,
• हज़रत मौलाना ज़रीफ़ अहमद मज़फ़रनगरी रह आदि।
यह फ़तवा दारुल इफ़्ता के रिकॉर्ड के अलावा "अल-क़ौल अल-सहीह फ़ी मक़ाइद अल-मसीह", "मबहिसा रंगून" और "कादयानियत की पहचान" नामक किताबों में भी देखा जा सकता है।
अंजुमन हिदायतुर रशीद के गठन के पहले दिनों में जब ख़त्म-ए-नुबुव्वत को साबित करने और कादयानियत की तर्दीद में अंजुमन के सक्रिय और उत्थानशील उलमा नंगी तलवार की त रह थे, उसी वक़्त "ख़ुदाई फ़ैसला" के नाम से अंजुमन हिदायतुर रशीद ने कादयानी छल और फरेब के बारे में एक इश्तहार जारी किया। यह इश्तहार कादयानियों कीफसलों पर आकाशीय बिजली बनकर गिरी, तो एम क़ासिम अली कादयानी नामक एक मिर्ज़ाई ने चौंसठ पन्नों पर मुश्तमिल एक मुस्तक़िल किताबच़ा
"बलअम सानी" के नाम से
"खुदाई फ़ैसले" के रद्द में प्रकाशित किया।
"बलअम सानी" की ज़बान इस क़दर अपमानजनक, गन्दी और अफ़सोसनाक है कि इसे
मुगाल्लाजात ए मिर्ज़ा में शामिल किया जाना चाहिए था। यह किताब फ़रवरी 1919 में प्रकाशित हुई। इस किताब में अक़ाबिर मज़ाहिर की शान में नाम ब नाम मुगल्लाजात (गालियाँ) लिखी गई हैं।
बहरहाल, कादयानियों की जुबान और उनके क़लम की गन्दगी का सम्पूर्ण सबूत इस किताब से मिल जाता है। यह किताब मदरसा के मरकजी क़ुतुब खाने में मौजूद है, और तहक़ीक़ी काम करने वालों के लिए इस किताब का पढ़ना लाभकारी साबित होगा।
फित्न-ए- कादयानियत की सख़्त निगरानी और इसके खिलाफ कार्रवाई के लिए सभी धार्मिक मदरसों में एक स्थायी विभाग होना चाहिए। और दारुल उलूम, मज़ाहिर उलूम और नदवतुल उलमा जैसे केंद्रीय धार्मिक संस्थाओं में तो अपने-अपने मस्लक और मज़हब की हिफ़ाज़त और रक्षा के लिए अलग-अलग विभागों का गठन आवश्यक हो गया है। गैर-मुक़ल्लिदियत, शियाईयत, , रज़ाख़ानीयत और कादयानियत जैसे फितनों का मुकाबला करने के लिए कोई एक विभाग भी अपर्याप्त होगा। हर फितने के लिए अलग विभाग होना चाहिए। इसी त रह, धार्मिक मदरसों में इतिहास और अध्ययन-ए-धर्मों और मज़हबों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और इन संस्थानों की इस त रह से निर्माण की योजना बनानी चाहिए कि बिजली के कड़कने से भी वे थक जाएं। धर्म के ऐसे मज़बूत क़िलें होने चाहिए, जिनसे टकरा कर हवाएँ अपना रास्ता और लहरें अपनी दिशा बदलने पर मजबूर हो जाएं।
मज़ाहिर उलूम के बड़े उलमा ने शुरुआत से ही इस पहलू को ध्यान में रखा है, चूंकि अंजुमन हिदायतुर रशीद की स्थापना और मजबूती के बावजूद, काम में तेजी और अच्छाई लाने के लिए मुस्तकिल विभाग की स्थापना पर जोर देते रहे हैं। चूंकि मज़ाहिर उलूम की
रूदाद १३४८ हिजरी में इस ज़रूरत का इज़हार इन अल्फ़ाज़ में किया गया है।
"इस विभाग के संबंध में हर साल दर्शकों की सेवा में अत्यधिक जोरदार शब्दों में यह कहा जाता है कि इस्लामी मदरसों के लिए इस विभाग का होना अत्यंत आवश्यक है, विशेष रूप से इस समय में जब कि पूरी दुनिया में इस्लाम पर चारों ओर से संकट और परेशानियों का पहाड़ नजर आता है और हर ओर से एक नई आंधी चलती दिखाई देती है, तो इसके समाधान और रोकथाम के लिए सभी इस्लामी मदरसों में इस विभाग का होना आवश्यक प्रतीत होता है। चूंकि एक लंबे समय से यह विभाग अल्लाह के शुक्र से साथ मदरसा मज़ाहिर उलूम में अंजुमन हिदायतुर रशीद के नाम से कार्यरत है, इस विभाग में नियमित रूप से वअज़, तक़रीर और मुनाज्रह( बहेस) की प्रैक्टिस कराई जाती है और हर आने वाले इस्लाम पर हमले को रोका जाता है और इसका उचित तरीके से समाधान किया जाता है... लेकिन इसमें आय की बहुत कमी है, क्योंकि रात दिन क़ियामत जैसे फितने और अशांति, और हर समय के मुनाज्रेह की वजह से इसका प्रशासन ठीक से किया जाता है, क्योंकि इस्लाम की रक्षा के लिए आक्रामक और रक्षात्मक उपायों की सख्त आवश्यकता है और हर संभव तरीके से इसमें प्रयास किया जाता है कि इस विभाग में विकास दिखाई दे, क्योंकि तबलिग़ एक ऐसा जरिया है जिसे सहाबा-ए-कराम (रज़ी अल्लाह अन्हुम) और खुद इस्लाम के संस्थापक, हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) ने इस कार्य को बड़े पैमाने पर फैलाया है, जिसका सिलसिला अल्लाह के शुक्र से अब तक जारी है और इंशाल्लाह जारी रहेगा। (रूदाद मदरसा, बाबत १३४८, पृष्ठ २३)"
१३५१ह की रूदाद में फिर इसी ज़रूरत का इज़हार इन अल्फाज़ में किया गया:
"इस विभाग की ज़रूरत, जिस क़दर है, उसे करीब-करीब तमाम ही अहल-ए-इस्लाम महसूस कर रहे हैं क्योंकि तालीम के बाद क़ौमी ख़िदमत सिर्फ़ इसी दरजे से हो सकती है। ज़रूरत तो इस की है कि फारिग़-उल-तहसील हज़्रात को वेतन दे कर इस विभाग में रखा जाए और उन्हें वअज़, तक़रीर, मुनाज़रा, तसनीफ़ और तालिफ़ और ज़रूरी इल्मो व फनों का माहिर बनाया जाए।"
(रूदाद मदरसा बाबत १३५१, पृष्ठ १६)
सहारनपुर की ज़मीन, क्योंकि दीनी इल्मों और रूहानियत का अज़ीम मरकज़ है, देवबंद, कांधला, नानौता, झिंझाना, केराना, रायपुर, फुलत, गंगोह, थाना भवन, जलालाबाद, शामली, पुर क़ाज़ी, मंगलौर, अंबहटा और भूड़हना जैसे क़दीम इल्मी और रूहानी क़स्बे और जगहें इसी इलाके में हैं, इसी वजह से बातिल तहरीक़ात ने इस इलाके को अपना हदफ़ बना लिया है। ईसाई मिशनरियाँ, यहूदी सरगर्मियाँ, क़ादियानी रेशा दवानीयाँ (जड़ें फैलाना) और हुनूद का विवाद और असमंजस पैदा करना और योजना बनाना लगातार जरी हैं। मुसलमानों के ईमान और यक़ीन को संदिग्ध और उनके यक़ीन व एकता को अस्थिर करने के लिए तमाम इस्लाम दुश्मन ताकतें पूरा जोर लगा रही हैं और सीधे साधे मुसलमान उनके बहकावे में आ रहे हैं। इस खतरनाक और नाज़ुक हालात की गंभीरता को मज़ाहिर उलूम और दारुल उलूम के उलमा ने न सिर्फ महसूस किया बल्कि इन आन्दोलनों को सर उठाने से पहले दबाने की व्यवहारिक रणनीति अपनाई।
चूंकि कुछ साल पहले जब ये पता चला कि शहर सहारनपुर में क़ादियानी साहित्य ना सिर्फ़ खुल्लम-खुल्ला तकसीम हो रहा है, बल्कि क़ादयानी लोग सीधे साधे लोगों को दीन-ए-इस्लाम से दूर कर के क़ादयानियत में शामिल कर रहे हैं, तो हज़रत नाज़िम साहब मद्दाज़िल्लुहू ने शहर के बड़े लोगों और पढ़े-लिखे हज़्रात के ज़रिए जगह-जगह कॉर्नर मीटिंग्स कराईं, मुफ़ीद मशवरे दिए गए, अवाम को क़ादियानियत और क़ादियानी अकी़दों से आगाह कराने की कोशिशें की गईं। मज़ाहिर उलूम वक़्फ़ के दफ़्तर एहतेमाम में भी नाज़िम मदरसा हज़रत मौलाना मुहम्मद सईदी साहब मद्दज़िल्लुहू की नेतृत्व मैं शहर के बड़े लोगो ने मीटिंग कर के रहनुमाई हासिल की और निर्धारित कार्यों पर क़ादयानियत को ख़तम करने के लिए व्यस्त हो गए। इसी त रह अवाम और खास को दीन-ए-इस्लाम की सही तालीमात और इस्लाम मुख़ालिफ़ फ़ित्नों से आगाह करने के लिए शहर की केंद्रीय मसाजिद में "तफ़सीरे क़ुरआन" का बाबरकत सिलसिला भी शुरू कराया और इस सिलसिले की मुबारक कोशिशें आज भी जारी हैं, जिनके बेहतरीन नतीजे और असरात दिखाई दे रहे हैं। दीनी जज़्बे और सौम्य स्वभाव को हर त रह के फ़ित्नों से महफ़ूज़ रखने के लिए अलग अलग इलाकों में अपने प्रतिनिधियों के ज़रिए वअज़ और तक़रीर को ज़रूरी समझना भी निहायत ही फ़ायदेमंद साबित हो रहा है।
तीन शाबान 1429 हिजरी को, जब खतम-ए-बुखारी शरीफ का आयोजन हुआ, तो लाखों की संख्या में जमा भीड़ के बीच क़ादयानीवाद के प्रचार और क़ादयानी गतिविधियों के बारे में लोगों को जागरूक किया गया। इसके साथ ही, सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पास किए गए।
प्रस्ताव 1:
क़ादयानी समुदाय के बारे में पूरी दुनिया के मुसलमानों का मत है कि वे इस्लाम से बाहर हैं और यहूदियों, ईसाईयों या अन्य धर्मों और संप्रदायों की त रह एक अलग समूह हैं। इसलिए क़ादयानीयों को गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक माना जाए। इसके लिए अगर नए कानून की आवश्यकता हो, तो जिम्मेदार मुस्लिम संगठनों के परामर्श से कानून बनाया जाए और इस समूह को यह बाध्य किया जाए कि वे मुसलमानों जैसे नाम न रखें, मुसलमान होने का झूठा दावा न करें, मस्जिदों जैसी इबादत गाहें न बनाएं और मुस्लिम कब्रिस्तानों में अपने मृतकों को दफनाने की कोशिश न करें।
प्रस्ताव 2:
इनके तथाकथित नेताओं ने हमेशा अपने आपको अंग्रेजों का गुलाम माना और स्वतंत्रता संग्राम की मुहिम को विफल करने की पूरी कोशिश की। अंग्रेजों के लिए जासूसी की। उनके स्वनिर्मित नेता आज भी उन देशों में शरण लिए हुए हैं, जिनसे हमारे देश को गुलाम बनाने की साज़िशें रची गई थीं। इसलिए इनकी गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखी जाए कि वे कहीं देशद्रोही और विध्वंसक गतिविधियों में तो शामिल नहीं हैं।
प्रस्ताव 3:
यह बैठक आम मुसलमानों से अपील करती है कि वे क़ादयानीयों की उत्तेजक गतिविधियों से प्रभावित होकर कभी भी उत्तेजित न हों और पूरी त रह से धैर्य और संयम से काम लें। क़ुरआन करीम और हदीस शरीफ को अपनी राह का उजाला बनाएं। अपने बुजुर्गों, मस्जिदों, खानकाहों और धार्मिक मदरसों और केंद्रों से जुड़े रहें। आने वाली परिस्थितियों में प्रतिष्ठित आलिमों से मार्गदर्शन लें। अपने और अपनी नई पीढ़ी के विश्वासों के संरक्षण के प्रति जागरूक रहें। ऐसा न हो कि कोई शत्रु हमारे विश्वासों पर आक्रमण कर दे या हम अपनी आस्तीन से ही धोखा खा जाएं और हमारी आखिरत खराब हो जाए।
प्रस्ताव 4:
इस संदर्भ में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि दक्षिण भारत के बैंगलोर आदि क्षेत्रों में
"दींदार अंजुमन" के नाम से जो संस्था स्थापित की गई है, वह दरअसल क़ादयानीवाद का एक बदल हुआ रूप है। इसके संस्थापक
सिद्दीक दींदार चन बसवेश्वर के विचार और विश्वास पूरी त रह से इस्लाम के खिलाफ हैं। इसके अनुयायी भी मुसलमानों के
"ख़त्म-ए-नुबूवत" (पैगंबरी की अंतिमता) के विश्वास से विचलित हैं। इस संस्था का मुसलमानों से कोई संबंध नहीं है और इसके किसी भी प्रकार की गतिविधि और विघटनकारी कामों की जिम्मेदारी मुसलमानों पर नहीं आती।
नाज़िम साहब द्वारा यह घोषणा भी की गई कि जल्द ही छात्रों और इमामों के लिए एक विशेष प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया जाएगा ताकि इस फितने (फसाद) की रोकथाम के लिए आवश्यक तैयारियाँ जारी रखी जा सकें और अच्छे उपदेश (मौज़त हसनह) के माध्यम से प्रभावित क्षेत्रों और लोगों को लक्षित करके प्रभावी प्रयास किए जा सकें।
अंत में, हकीम उलमात हज़रत थानवी (रेह्मतुल्लाही अलैह) की कुछ हकीमाना सलाहें जो उन्होंने मदरसा प्रशासन को संबोधित करके दी थीं, सिर्फ इस दर्द और चिंता के साथ शामिल की जा रही हैं कि काश! मदरसा प्रशासन हज़रत थानवी ((रेह्मतुल्लाही अलैह) की इन सलाहों पर अमल करते हुए इस्लाम की रक्षा और प्रगति का कारण बन जाएं।
हज़रत थानवी (रेह्मतुल्लाही अलैह) ने अपनी लेखन और उपदेशों में विशेष रूप से दीनी मदरसों के अधिकारियों और प्रबंधकों को सलाह दी है कि वे प्रचारकों और मुबल्लिगों (धर्म प्रचारकों) के लिए नियमित व्यवस्था करें, क्योंकि इस्लाम विरोधी आंदोलनों का सामना करने की ताकत, उनके आरोपों का सही जवाब और कुफ्र के हर वार का मुकाबला केवल समय पर किए गए प्रचार और धार्मिक शिक्षा के माध्यम से ही किया जा सकता है। चूंकि, उन्होंने
मज़ाहिरर उलूम सहारनपुर के एक वार्षिक सत्र में अपने भाषण के दौरान कहा:
1. "मैंने अपने संबंधित कुछ मदरसों को बार-बार लिखा कि जैसे आपके यहाँ शिक्षकों को तनख़्वाह मिलती है और ये शिक्षा और तदरीस (शिक्षण) अपने आप में एक प्रकार का प्रचार है, वैसे ही मदरसा से आम प्रचार का भी प्रबंध होना चाहिए और मदरसा की तरफ से तनख्वाह पाने वाले मुबल्लिग (धर्म प्रचारक) रखे जाएं और उन्हें आसपास के इलाकों में भेजा जाए और उन्हें यह ताकीद (निर्देश) भी दी जाए कि वे चंदा न मांगें, केवल आदेशों (धार्मिक शिक्षाओं) को पहुँचाएं।" (मज़ाहिरुल आमाल: धर्म और दुनिया संबंधित पृष्ठ 561)
अनफास ए ईसा नामक पुस्तक में हज़रत थानवी (रेह्मतुल्लाही अलैह) का यह वाक्य भी देखने को मिलता है:
2. "मेरी राय है कि इस्लामी मदरसे जैसे देवबंद और सहारनपुर की तरफ से हर जगह धर्म प्रचारक भेजे जाएं, सभी देशों के हर हिस्से में उनका स्थायी रूप से ठिकाना हो, एक नियमित व्यवस्था हो और अन्य देशों में प्रचारकों को तैयार करके भेजा जाए।" (अनफास ए ईसा, पृष्ठ 620/2)
3. "हर इस्लामी मदरसा और संस्था को कम से कम एक वाइज़ (धरम उपदेशक) भी नियुक्त करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि शिक्षा की आवश्यकता के लिए एक शिक्षक का अतिरिक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जिस प्रकार मदरसे के शिक्षक छात्रों के शिक्षक हैं, उसी प्रकार वाइज़ (धर्म उपदेशक) जनता के शिक्षक हैं, और संस्था के लोग यह समझें कि यह शिक्षा जनता के लिए उनकी संस्था की एक शाखा है।" (ताजदीद-ए-तालीम व तब्लीग़, पृष्ठ 187)
4. "मैं सभी दीनी मदरसों के लोगों को राय देता हूँ कि हर मदरसे की तरफ से कुछ धर्म प्रचारक भी होने चाहिए, यह हदीस की शिक्षा है और पढ़ाई-लिखाई उसी उद्देश्य का प्रारंभ है, क्योंकि उद्देश्य असल में तब्लीग़ (प्रचार) ही है।" (इजाफात-ए-यौमिया, पृष्ठ 389/6)
इस प्रकार, हालात की नजाकतों और माहौल तथा समाज की कठिनाइयों को इस्लामी शिक्षा के साफ और ठंडे पानी से साफ करने के लिए, नाजिम-ए-मदरसा के आदेश से मदरसे के मासिक शैक्षिक पत्रिका
"आइना-ए-मज़ाहिर-उलूम" का विशेष अंक
"ख़त्म-ए-नुबुव्वत नंबर" प्रकाशित किया गया और देश के विभिन्न हिस्सों, इलाकों और क्षेत्रों में इसे बड़ी संख्या में पहुँचाने की कोशिश की गई। दीनी मदरसों में छात्रों की शिक्षा और प्रशिक्षण इस त रह होना चाहिए कि वे आलोचकों और नकारात्मक विचार रखने वालों को संतुष्ट कर सकें। छात्रों के दिमाग और मन विकास के इच्छुक हैं, उनकी सोच की ज़मीन प्यासी है, और यदि इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया जाता, तो परिणाम वही होगा जो उन नदियों का होता है जो खेतों को सींचने के लिए नहीं उपयोग की जातीं, वे नदियाँ किसी झील या समुद्र में गिर जाती हैं या रेगिस्तान में समा जाती हैं। जो क्षमताएँ समय पर इस्तेमाल नहीं की जातीं, वे अपनी दिशा, सोच के पैमाने, विचार के दरवाजे और ध्यान के रास्ते बदल देती हैं। जो ताकत समय पर समाज के निर्माण और गठन के लिए नहीं उपयोग की जाती, उसे समय की धारा, हालात के उतार-चढ़ाव और मौसम के परिवर्तन विनाश की ओर मोड़ देते हैं। और जिस घर को उसके निवासियों से खाली कर दिया जाता है, उसमें पक्षी अपने घोंसले बनाते हैं और शैतान उस घर को अपना अड्डा बना लेते हैं। आवश्यकता है कि इस्लाम के बेहतरीन दिमाग को बेहतरीन प्रशिक्षण के ढाँचे में ढाला जाए और राष्ट्र के निर्माण और विकास के लिए अजेय किला तैयार किया जाए। एक सक्रिय और गतिशील समुदाय बनाया जाए, और इस समुदाय में काम करने की ऐसी गति (स्पीड) और जोश (स्पिरिट) पैदा की जाए कि तेज़ आंधियाँ और खौफनाक लहरें उनकी स्थिरता में कोई हलचल न पैदा कर सकें।
मज़ाहिर उलूम के उलमा की कुछ कृतियाँ (पुस्तकें) "ख़त्म-ए-नुबुव्व्त" के संदर्भ में
1. इज़हार-उल-बुत्लान लिदअवा मसिह क़ादयान - हज़रत मौलाना हबीब अहमद कीरानवी रह
2. आइना-ए-कमालात-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना मुहम्मद ज़क़रिया महाजिर मदनी रह
3. इस्लाम और मिर्ज़ाईयत का उसूली इख़तिलाफ़ - हज़रत मौलाना मुहम्मद इदरीस कांध्लावी रह
4. हक़ीक़त-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना मुहम्मद इदरीस कांध्लावी रह
5. दआवि-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना मुहम्मद इदरीस कांध्लावी रह
6. मौलाना नानौतवी रह पर मिर्ज़ाईयों का इल्ज़ाम - हज़रत मौलाना मुहम्मद इदरीस कांध्लावी रह
7. मिर्ज़ाई नुबुवत का ख़ात्मा - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
8. मुग़ल्लज़ात-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
9. कृष्ण क़ादियानी - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
10. कुफ़्रियात-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
11. क़ज़िबात-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
12. इख़तिलाफ़ात-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
13. अमराज़-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रह
14. अल-क़ादयानीयत माहि (अरबी) - हज़रत मौलाना आशिक़ इलाही बलंद शहरवी
15. ख़त्म-ए-नुबुवत - हज़रत मौलाना हबीबुर्रहमान ख़ैर आबादी
16. फ़ित्न-ए-इर्तिदाद और मुसलमानों का फ़र्ज़ - हज़रत मौलाना मुहम्मद असद उल्लाह रह
17. रद्-ए-क़ादियानीयत - हज़रत मौलाना मुहम्मद मूसा रंगूनवी
18. मुतआरिजात-ए-मिर्ज़ा - हज़रत मौलाना मुहम्मद मूसा रंगूनवी
19. हिंदुस्तान के दो मुजद्दिदों की शिरीन कलामी - हज़रत मौलाना मुहम्मद मूसा रंगूनवी
20. "ख़त्म-ए-नुबुवत नंबर" (विशेष अंक आईना-ए-मज़ाहिर उलूम) संपादित: अहकर नासिरुद्दीन मज़ाहिरी
21. दफुउल इल्हाद अन हुकमिल इर्तिदाद (प्रकाशित: अंजुमन हुदयातुर रशीद)
इन किताबों के अलावा भी कई अन्य कृतियाँ हैं, जो मज़ाहिर उलूम उलमा के कलम से निकली हैं, जिन्हें पन्नों की तंगी के कारण हटा दिया गया है।
अंजुमन के परवरदा(पालित)और परदाख्ता (परिष्कृत) कुछ प्रतिष्ठित नाम
1. हज़रत मौलाना सैयद अब्दुल लतीफ पुर काज़वी रह
2. हज़रत मौलाना अब्दुल रहमान क़ामिल पुरी रह
3. हज़रत मौलाना मंज़ूर अहमद ख़ान सहारनपुरी रह
4. हज़रत मौलाना क़ारी मुफ़्ती सईद अहमद अजरारवी रह
5. हज़रत मौलाना अब्दुश्शाकूर किम्बल पुरी रह
6. हज़रत मौलाना शाह मुहम्मद असदुल्लाह रामपुरी रह
7. हज़रत मौलाना मुफ़्ती महमूद हसन गंगोही रह
8. हज़रत मौलाना मुफ़्ती जमील अहमद थानवी रह
9. हज़रत मौलाना मुहम्मद ज़क़रिया क़ुदसी गंगोही रह
10. हज़रत मौलाना नूर मुहम्मद टांडवी रामपुरी रह
11. हज़रत मौलाना जमील-उर-रहमान अमरोही रह
12. हज़रत मौलाना अख़लाक अहमद सहारनपुरी रह
13. हज़रत मौलाना जवाद हुसैन रह
14. हज़रत मौलाना रशीद अहमद रह
15. हज़रत मौलाना अल्ताफ़ हुसैन रह
16. हज़रत मौलाना अब्दुल ख़ालिक रह
17. हज़रत मौलाना हिदायत अली बस्तवी रह
18. हज़रत मौलाना नज़ीर अहमद सियालकोटी रह
19. हज़रत मौलाना अबरारुल हक़ हरदोई रह
20. हज़रत मौलाना आनीस उर-रहमान लुधियानवी रह
21. हज़रत मौलाना उबैदुल्लाह बलयावी रह
22. हज़रत मौलाना आशिक़ इलाही बलंद शहरी रह
23. हज़रत मौलाना मुहम्मद वजीह टांडवी रह
24. हज़रत मौलाना मुमताज़ अहमद टांडवी रह
यह सभी महान उलमा अंजुमन के द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त किए हुए थे और इन्होंने इस्लाम की शिक्षा और प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।




