अहकाम
ईदुल-अज़हा (बक्ऱाईद) के अहकाम
जिल हिज्जा के पहले दस दिनों की फ़ज़ीलत
क़ुरआन मजीद की सूरह अल-फजर में अल्लाह तआला ने दस रातों की क़स्म खाई है। यह रातें आमतौर पर जिल हिज्जा के पहले दस दिनों की रातें मानी जाती हैं। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह की इबादत के लिए जिल हिज्जा का दसवां दिन सबसे बेहतर समय है, इन दिनों में एक दिन का रोज़ा एक साल के रोज़े के बराबर और एक रात की इबादत शबे क़दर के बराबर है। इस दस दिन में नौवें दिन अर्थात अरफ़ा का दिन और अरफ़ा और ईद की रात विशेष अहमियत रखती है। अरफ़ा का रोज़ा पिछले साल और आने वाले साल के गुनाहों का कफ़ारा है, और ईद की रात में इबादत में मग्न रहना बड़ी फ़ज़ीलत और सवाब का कार्य है।
ईद अल-अज़हा की मसन्नून बातें
1. शरिअत के मुताबिक़ सज-धज करना
2. स्नान करना
3. मिस्वाक करना
4. खुशबू लगाना
5. ईद के दिन सुबह जल्दी उठना
6. ईदगाह जल्दी पहुँचना
7. ईदगाह जाने से पहले कुछ न खाना
8. ईदगाह जाकर नमाज़ पढ़ना अगर कोई रुकावट न हो
9. एक रास्ते से जाना और दूसरे से लौटना
10. पैदल जाना
11. रास्ते में "अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, ला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर व लिल्लाहिल हम्द" ऊँची आवाज़ में पढ़ना
12. ईदगाह से वापस आकर, कुछ खाने से पहले अपनी क़ुर्बानी का गोश्त खाना
तकबीरात-ए-तशरीक
1. नौवीं तारीख़ की सुबह से लेकर तेरहवीं तारीख़ की अस्र तक, हर फ़र्ज़ नमाज़ के बाद एक बार ऊँची आवाज़ में "अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, ला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर व लिल्लाहिल हम्द" कहना वाजिब है।
2. तकबीर नमाज़ के बाद से संबंधित है, अगर नमाज़ से सलाम फेर कर बात कर ली या मस्जिद से निकल गया या जोर से हंस पड़ा या वुजू तोड़ लिया तो तकबीर साकित (निरस्त) हो जाएगी।
3. मुसाफ़िर और कयाम करने वाला (जो मुसाफिर न हो), शहर या गाँव में रहने वाला, नमाज़ पढ़ने वाला और औरत सभी पर तकबीर कहनी वाजिब है, मगर औरत आहिस्ता से कहे।
4. जिसे एक रकात या उससे अधिक नहीं मिली हो, वह भी नमाज़ से फ़ारिग़ होने के बाद ऊँची आवाज़ में तकबीर कहे।
5. अगर इमाम तकबीर कहना भूल जाए, तो मुक्तदी (इमाम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले) तकबीर न छोड़ें बल्कि ऊँची आवाज़ में तकबीर पढ़े ताकि इमाम को याद आ जाए।
(नोट) तक्बीरे तशरीक़ (जो ऊपर बताई गयी है) का मध्यम आवाज़ से पढ़ना अनिवार्य है, बहुत से लोग इसके पढ़ने मैं लापरवाही करते हैं या हलकी आवाज़ से पढ़ लेते हैं इसका सुधार आवश्यक है।
ईद की नमाज़
1. जिलहिज्जा की दसवीं तारीख़ को दो रकअत नमाज़ शुक्रिया के तोर पर पढ़ना वाजिब है।
2. ईद की नमाज़ का समय सूर्य के एक बाण के बाद से लेकर सूर्य के मध्य आकाश से ढलने तक है।
3. ईद की नमाज़ पढ़ने का तरीका: पहले इस तरह निय्यत करें कि दो रकात नमाज़ वाजिब ईद अल-अज़हा की छह वाजिब तकबीरों के साथ पढ़ता हूँ। फिर तकबीर कहकर हाथ बाँध लें और "सुब्हानकल्लाहुम्मा व बिहम्दिक व तबारकस्मुक व तआला जद्दुक व ला इलाहा ग़ैरुक़" पढ़ कर तीन बार तकबीर कहें और हर बार तक्बीरे तह्रीमा (नमाज़ की सबसे पहली तकबीर) की तरह दोनों हाथ कानों तक उठाये और दो तकबीरों तक हाथ छोड़ता रहे और हर तकबीर के बाद इमाम इतनी देर तक रुके कह सब लोग तकबीर कह सकें, तीसरी तकबीर के बाद हाथ न छोड़े बल्कि बाँध लें और फिर हस्बे दस्तूर (जैसे आम नमाज़ों मैं) इमाम क़िराअत करता है करे और मुक्तदी खामोश रहें, फिर इमाम के साथ मुक्तदी भी रुकू और सजदे करेंगे फिर दूसरी रकअत मैं इमाम सुरह फातिहा के साथ कोई सूरत मिला कर पढ़ेगा और रुकू मैं जाने से पहले तीन तक्बीरें कहेगा, मुक्तदी भी पहले की तरह तीन तकबीरें कहे और तीनों तकबीरों मैं हाथ उठा कर छोता रहे, फिर इमाम बगैर हाथ उठाये चोथी तकबीर कह कर रुकू मैं चला जाये और बाकी नमाज़ रोज़ की नमाज़ों की तरह पूरी करे।
4. ईद का ख़ुत्बा पढ़ना जुमे के खुतबे की तरह अनिवार्य व आवश्यक नहीं है लेकिन सुनना आवश्यक है।
5. अगर किसी को ईद की नमाज़ न मिली हो और सब पढ़ चुके हो तो अकेला नहीं पढ़ सकता।
6. अगर किसी की ईद की नमाज़ की एक रकअत छूट जाये तो जब उसको अदा करने लगे तो पहले किरअत करे फिर ज़ाईद तक्बीरें कहे।
7. अगर कोई व्यक्ति ईद की नमाज़ मैं ऐसे समय पर शामिल हुआ है कि इमाम तकबीरों से फारिग़ हो चुका हो तो फौरन निय्यत बांध कर तक्बीरें कह ले वरना रुकू की हालत मैं तस्बीह के बजाये हाथ उठाये बगैर तक्बीरें कह ले और अगर अभी तकबीरों से फारिग नहीं हुआ था कि इमाम ने रुकू से सर उठा लिया तो यह भी खड़ा हो जाये और जितनी तक्बीरें रह गयी वह माफ हैं।
कुर्बानी की शरई हकीकत
कुर्बानी एक अहम इबादत और इस्लाम की निशानियों (शिआर) में से है। ज़माना-ए-जाहिलियत (इस्लाम से पहले के दौर) में भी इसे एक इबादत समझा जाता था, लेकिन उस समय लोग बुतों वग़ैरह के नाम पर क़ुर्बानी किया करते थे।
सूरह कोसर में अल्लाह तआला ने हुक्म फ़रमाया है कि जिस तरह नमाज़ अल्लाह के सिवा किसी और के लिए नहीं हो सकती, उसी तरह क़ुर्बानी भी सिर्फ़ उसी (अल्लाह) के नाम पर होनी चाहिए।
आयत है: "फ़सल्लि लिरब्बिक वन्हर" — (अर्थ) अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ो और उसी के लिए क़ुर्बानी करो।
एक दूसरी आयत में इसी मफ़हूम (अर्थ) को दूसरे अंदाज़ में इस तरह बयान किया गया है:
"इन्ना सलाती वनुसुकी वमह्याया वममाती लिल्लाहि रब्बिल-आलमीन" —
(अर्थ) मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी, मेरी ज़िंदगी और मेरी मौत सब कुछ अल्लाह, रब्बुल आलमीन के लिए है।
क़ुर्बानी के फ़ज़ाइल
(1) हज़रत ज़ैद बिन अर्क़म रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत फ़रमाते हैं कि सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अजमईन ने हज़रत रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह में अर्ज़ किया:
"या रसूलल्लाह! क़ुर्बानी क्या है?"
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया:
"यह तुम्हारे वालिद हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की सुन्नत है।"
सहाबा ने अर्ज़ किया:
"या रसूलल्लाह! हमें इसमें क्या सवाब मिलेगा?"
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
"हर एक बाल के बदले एक नेकी मिलेगी।"
(2) हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
"बनी-आदम (इंसान) का कोई भी अमल ईद-उल-अज़हा के दिन अल्लाह तआला को क़ुर्बानी का खून बहाने से ज़्यादा पसंद नहीं है। और क़ुर्बानी का खून ज़मीन पर गिरने से पहले ही अल्लाह के यहां क़ुबूल हो जाता है।
इसलिए इस (क़ुर्बानी) के ज़रिए अपने दिल को राहत पहुंचाओ।"
(3) हज़रत रसूल-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
"जिस शख्स ने सिर्फ़ सवाब की नियत से क़ुर्बानी की, तो वह क़ुर्बानी उसके लिए जहन्नम की आग से आड़ (बचाव) बन जाएगी।"
क़ुर्बानी से संबंधित मसाइल (मसले)
क़ुर्बानी किन पर वाजिब होती है:
क़ुर्बानी करना उस व्यक्ति पर वाजिब होता है जो:
मुसलमान हो, मुक़ीम (स्थायी निवासी) हो, यानी शरई मुसाफ़िर (सफर में होने वाला) न हो और उसकी ज़रूरत की मूल चीज़ों के अलावा उसके पास निसाब के बराबर माल हो — चाहे वह माल नकद (पैसा) हो या सामान/जायदाद हो। इस पर साल का गुजरना या माल का तिजारती (व्यापारी) होना शर्त नहीं है बल्कि अगर अय्याम-ए-क़ुर्बानी (क़ुर्बानी के दिन, यानी 10, 11, 12 ज़िल-हिज्जा) में किसी भी वक्त वह मालदार हो जाए, तो क़ुर्बानी वाजिब हो जाती है। इसी तरह अगर 12वीं ज़िल-हिज्जा को सूरज डूबने से पहले कोई व्यक्ति मुसलमान हो जाए या मुसाफ़िर से मुक़ीम हो जाए और निसाब के बराबर माल का मालिक बन जाए, तो उस पर भी क़ुर्बानी वाजिब होगी।
तन्बीह (चेतावनी):
जिस शख़्स पर क़ुर्बानी वाजिब है, उसके लिए अय्याम-ए-क़ुर्बानी में क़ुर्बानी करना ही ज़रूरी है।
क़ुर्बानी की रकम को किसी और नेक काम में खर्च कर देना और उसे क़ुर्बानी का बदला (विकल्प) समझना जाइज़ नहीं है।
ज़रूरत-ए-असलीया और निसाब की व्याख्या
ज़रूरत-ए-असलीया:
वह ज़रूरत जो जान या आबरू से संबंधित हो, अर्थात् जिसके पूरा न होने से जान या आबरू जाने का डर हो,
जैसे — खाना पीना, कपड़े, रहने का मकान,
पेशा करने वाले को उसके पेशे के औज़ार।
बाक़ी बड़ी-बड़ी देगें, बड़े-बड़े शामियाने और फ़र्श — सामान-ए-ज़रूरी में शामिल नहीं हैं।
निसाब:
माल की वह खास-खास मात्रा जिसमें शरीअत ने ज़कात को फ़र्ज़ किया है।
जैसे —
चांदी का निसाब: दो सौ (200) दिरहम है, जो कि साढ़े बावन तोला (612 ग्राम 35 मिलीग्राम) होते हैं।
और
सोने का निसाब: बीस मिस्क़ाल है, जो कि साढ़े सात तोला (87 ग्राम 979 मिलीग्राम) होते हैं।
क़ुर्बानी की नीयत:
क़ुर्बानी की नीयत सिर्फ दिल से करना काफ़ी है, ज़ुबान से कहना ज़रूरी नहीं,
लेकिन ज़िबह (जानवर काटने) के वक्त:
"बिस्मिल्लाहि अल्लाहु अकबर" कहना ज़रूरी है।
क़ुर्बानी के दिन और समय
1. क़ुर्बानी सिर्फ तीन दिनों के साथ ख़ास (निर्धारित) है।
2. दसवीं तारीख़ से लेकर बारहवीं तारीख़ के सूरज डूबने तक क़ुर्बानी का समय है, लेकिन क़ुर्बानी करने का सबसे बेहतर दिन दसवीं तारीख़ है, फिर ग्यारहवीं, फिर बारहवीं।
3. शहर और कस्बे में रहने वाले व्यक्ति को ईद की नमाज़ से पहले क़ुर्बानी करना दुरुस्त (सही) नहीं है।
लेकिन जिस शहर में कई जगह ईद की नमाज़ होती हो, तो शहर में कहीं भी ईद की नमाज़ हो जाने के बाद पूरे शहर में क़ुर्बानी जाइज़ हो जाती है।
हाँ, अगर कोई गांव में रहता हो, तो वहाँ सुब्ह सादिक (भोर) के बाद भी क़ुर्बानी करना दुरुस्त है, लेकिन मुसतहब (बेहतर) यह है कि सूरज निकलने के बाद की जाए।
4. बारहवीं तारीख़ को सूरज डूबने से पहले क़ुर्बानी करना दुरुस्त है, जब सूरज डूब गया, तब क़ुर्बानी दुरुस्त नहीं।
5. क़ुर्बानी दसवीं ज़िल-हिज्जा से बारहवीं ज़िल-हिज्जा तक जब दिल चाहे की जा सकती है, रात को या दिन में, लेकिन रात को क़ुर्बानी करना बेहतर नहीं है।
क़ुर्बानी के जानवर की शर्तें और गुण (औसाफ):
1. शरई (धार्मिक रूप से): भेड़, बकरी, बकरा, दुम्बा, गाय, बैल, भैंस, भैंसा, ऊंट और ऊंटनी की क़ुर्बानी दुरुस्त (सही) है।
और किसी जानवर की क़ुर्बानी दुरुस्त नहीं है।
(लेकिन क़ानूनी रूप से गाय और उसकी नस्ल का ज़बीहा बंद है।)
2. बकरा या बकरी:
एक साल से कम उम्र का दुरुस्त नहीं है।
जब पूरा एक साल हो जाए, तभी उसकी क़ुर्बानी दुरुस्त है।
और ऊँट: पांच साल से कम का दुरुस्त नहीं।
हाँ, भेड़ या दुम्बा अगर इतना मोटा-ताज़ा हो कि साल भर का मालूम हो,
और साल भर वाले भेड़ों और दुम्बों में अगर छोड़ दिया जाए तो कोई फर्क मालूम न हो —
तो ऐसे छह महीने के भेड़ और दुम्बे की क़ुरबानी भी दुरुस्त हैं।
3. भेड़, बकरी और दुम्बे के अलावा बाकी जानवरों (गाय, बैल, ऊंट आदि) में अगर सात आदमी मिलकर क़ुर्बानी करें,
तो वह भी दुरुस्त है।
लेकिन शर्त यह है कि:
• किसी का हिस्सा सातवें हिस्से से कम न हो।
• और सभी की नियत अल्लाह की रज़ा (क़ुर्बत) की हो।
• अगर किसी की नियत सिर्फ़ गोश्त की होगी, या
• किसी का हिस्सा सातवें हिस्से से कम होगा,
तो किसी की भी क़ुर्बानी दुरुस्त नहीं होगी।
4. अगर किसी ने जानवर इस नियत से खरीदा कि अगर कोई और मिल गया तो उसे भी शरीक कर लेंगे —
फिर खरीदने के बाद कुछ और लोग शरीक हो गए,
तो यह दुरुस्त है।
लेकिन अगर खरीदते वक्त नियत यही थी कि खुद अकेले अपनी तरफ़ से क़ुर्बानी करेगा,
फिर अगर:
• खरीदने वाले पर क़ुर्बानी वाजिब थी, तो उसके लिए किसी दूसरे को शरीक करना जाइज़ तो है, लेकिन बेहतर नहीं।
• अगर उस पर क़ुर्बानी वाजिब नहीं थी, तो उसके लिए किसी दूसरे को शरीक करना जाइज़ नहीं।
5. जिस व्यक्ति पर क़ुर्बानी वाजिब थी,
उसने क़ुर्बानी का जानवर खरीदा, फिर:
• वह जानवर गुम हो गया,
• चोरी हो गया, या
• मर गया —
तो उसकी जगह दूसरी क़ुर्बानी करना वाजिब है।
और अगर क़ुर्बानी करने के बाद पहला जानवर मिल जाए,
तो बेहतर यह है कि उसकी भी क़ुर्बानी कर दे,
लेकिन उस पर उसकी क़ुर्बानी करना वाजिब नहीं।
अगर उस व्यक्ति पर पहले से क़ुर्बानी वाजिब नहीं थी,
बल्कि नफ़ली (ऐच्छिक) तौर पर उसने जानवर खरीदा था,
और वह जानवर:
• मर गया, या
• गायब हो गया,
तो उसके ज़िम्मे दूसरी क़ुर्बानी वाजिब नहीं।
हाँ, अगर गुमशुदा जानवर क़ुर्बानी के दिनों में मिल जाए,
तो उसकी क़ुर्बानी करना वाजिब है।
और अगर क़ुर्बानी के दिन बीतने के बाद मिले,
तो उस जानवर या उसकी कीमत का सदक़ा करना वाजिब है।
वे ऐब (दोष) जिनकी वजह से क़ुर्बानी जाइज़ नहीं होती
1. वह बकरी जो बावली (पागल) होकर घूमने लगे और दूसरी बकरियों के साथ रहना और चरना छोड़ दे।
2. वह बकरी जो खारिश (खुजली) की वजह से इस क़दर दुबली हो गई हो कि उसकी हड्डियों में गूदा न रहा हो।
3. अंधा होना, काना होना, इस दरजे दुबला होना कि हड्डियों में गूदा न रहा हो, ऐसी बीमारी होना कि मर्ज़ (रोग) बिल्कुल ज़ाहिर हो।
4. एक-तिहाई से ज़्यादा हिस्सा कान या दुम (पूंछ) कटा हुआ होना या आंख की एक-तिहाई से ज़्यादा रौशनी जाती रही हो।
5. जिस जानवर के बिल्कुल दांत न हों या जिसके अक्सर (अधिकतर) दांत टूट गए हों।
6. जिसके पैदाइश (जन्म) के वक़्त से कान ही न हों, लेकिन अगर छोटे-छोटे हों तो जाइज़ है।
7. जिसके थन किसी मर्ज़ (रोग) की वजह से मर गए हों, बकरी का एक थन और गाय और ऊंटनी के दो थन तमाम (पूरे) के हुक्म में हैं।
8. ज़बान का इतना ज्यादा कटा हुआ होना कि चरने और खाने से रोकता हो।
9. सींग बिल्कुल जड़ से टूट गए हों, अलबत्ता अगर जड़ से न टूटे हों या पैदाइशी न हों तो जाइज़ है।
10. लँगडापन इस दर्जे हो कि सिर्फ तीन पांव से चलता हो, चौथा पांव रखा ही न जाता हो या चौथे से चल ही न सकता हो।
11. खुनस़ा (द्विलिंगी) होना।
12. अगर कोई जानवर सही-सलामत खरीदा था, फिर उसमें कोई ऐब माने क़ुर्बानी पैदा हो गया, तो जिस पर क़ुर्बानी वाजिब थी, उसको दूसरा जानवर खरीद कर क़ुर्बानी करना ज़रूरी है, और जिन पर क़ुर्बानी वाजिब न थी, उसको वही काफ़ी है।
13. अगर कोई ऐब ज़िबह करने के वक़्त तड़पने से पैदा हो तो उसकी क़ुर्बानी दुरुस्त है।
क़ुर्बानी के मुस्तहबात (पसंदीदा काम)
1. क़ुर्बानी का जानवर मोटा और खूबसूरत होना।
2. छुरी का तेज़ होना।
3. जिबह (काटने) के बाद ठंडा होने तक खाल न उतारना।
4. अगर जिबह करना जानता हो तो अपने हाथ से जिबह करना, और अगर अच्छी तरह जिबह करना न जानता हो तो दूसरे के जिबह करने के वक़्त खुद मौजूद रहना।
5. जिबह के समय यह दुआ पढ़ना: "इन्नी वज्जहतु वज्हिया लिल्लज़ी फतरस्समावाति वलअर्ज़ा हनीफ़ं वमा अन मिनल मुशरिकीन। इन्ना सलाती वा नुसुकी व मह्याया व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन। ला शरीका लहू व बिज़ालिका उमिरतु व अना मिनल मुस्लिमीन। अल्लाहुम्म मिंका वलक।"
6. जिबह के बाद यह दुआ पढ़ना:
"अल्लाहुम्मा तक़ब्बल्हू मिन्नी कमा तक़ब्बलता मिन हबीबिका मुहम्मदिंव वखलीलिका इब्राहीमा अलैहिमस्सलातु वस्सलाम।"
7. जिबह करते समय सख़्ती न करना।
8. रस्सी वग़ैरह (जो जानवर को बांधने में इस्तेमाल हुई हो) ख़ैरात में दे देना।
क़ुर्बानी का गोश्त:
1. जिस जानवर में कई हिस्सेदार हों, तो गोश्त को अच्छे से तोल कर बाँटा जाए, अनुमान से बाँटना जाइज़ नहीं। क्योंकि अगर किसी का हिस्सा कम या ज़्यादा हो गया तो यह सूद (ब्याज) बन जाएगा, जो बहुत बड़ा गुनाह है।
हाँ, अगर गोश्त के साथ कल्ला (सिर) और पाये (पैर) भी शामिल कर दिए जाएं, तो जिस तरफ़ ये हों, उस तरफ़ गोश्त कम होना जाइज़ है।
2. क़ुर्बानी का सारा गोश्त खुद भी इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन अफ़ज़ल यह है कि गोश्त के तीन हिस्से किए जाएं:
• एक हिस्सा अपने घर वालों के लिए,
• एक हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए,
• एक हिस्सा ग़रीबों और मिस्कीनों के लिए।
3. क़ुर्बानी का गोश्त बेचना हराम है।
4. जिबह करने वाले को उज्रत (मजदूरी) में गोश्त या खाल देना जाइज़ नहीं।
5. क़ुर्बानी का गोश्त काफ़िर को देना जाइज़ है, बशर्ते कि उज्रत (मजदूरी) में न दिया जाए।
क़ुर्बानी की खाल:
1. बेहतर यह है कि क़ुर्बानी के जानवर की खाल को ख़ैरात कर दिया जाए।
2. क़ुर्बानी के जानवर की खाल को अपने इस्तेमाल में लाना, जैसे डोल या मुसल्ला (जाए-नमाज़) बनवा लेना, या किसी को हदिया (तोहफ़ा) देना, जाइज़ है।
3. अगर क़ुर्बानी करने वाले ने खाल को बेच दिया, तो उसकी क़ीमत अपने खर्च में लाना जाइज़ नहीं, बल्कि उसे सदक़ा करना वाजिब है।
4. क़ुर्बानी की खाल या उसकी क़ीमत:
• कसाई की मजदूरी में देना जाइज़ नहीं,
• इमाम या मुअज्ज़िन की मस्जिद की सेवा की तनख्वाह में देना जाइज़ नहीं,
• किसी नौकर की तन्खाह में देना भी जाइज़ नहीं।
5. क़ुर्बानी की खालों का फ़क़ीरों और मिस्कीनों पर ख़ैरात करना बेहतर है।
• इसी तरह मदारिस-ए-इस्लामिया-अरबिया के ग़रीब तलबा (छात्र) भी इन खालों का बेहतरीन इस्तेमाल हैं,
• इसमें सदक़ा का सवाब भी है और इल्म-ए-दीन की ख़िदमत भी।
लेकिन: मुदर्रिसीन (उस्तादों) और मुलाज़मीन (स्टाफ़) की तनख्वाह में देना जाइज़ नहीं।
ज़रूरी निवेदन
मज़ाहिर उलूम (वक़्फ़), सहारनपुर किसी पहचान का मोहताज नहीं है। यह एक मशहूर दीनी और तालीमी इदारा (संस्था) है। इसकी पढ़ाई पूरी करने वाले छात्र आज दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में दीन की शिक्षा, धार्मिक सेवाओं और समाज की भलाई के कामों में लगे हुए हैं।
इस वक़्त मदरसे में करीब डेढ़ हज़ार छात्र पढ़ रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर बच्चों के खाने और रहने का खर्च मदरसा खुद उठाता है। इसके अलावा, अध्यापकों और कर्मचारियों की तनख्वाह, इमारतों की मरम्मत, और अन्य ज़रूरी खर्चों के कारण आज के इस महंगे दौर में मदरसे का सालाना खर्च लगभग 5 करोड़ रुपये है।
मदरसे की कोई स्थायी आमदनी (आय) नहीं है और सरकार से भी कोई मदद नहीं ली जाती। यह पूरा काम सिर्फ भले लोगों के सहयोग से चलता है, जो अल्लाह की रज़ा के लिए मदद करते हैं।
रमज़ान का महीना नेकियों और भलाई का महीना है। हदीस शरीफ में है कि जो व्यक्ति रमज़ान में कोई नफ्ल (अतिरिक्त) इबादत करता है, उसे उतना सवाब (पुण्य) मिलता है जितना दूसरे महीनों में फर्ज़ (जरूरी) इबादत का होता है। और जो रमज़ान में फर्ज़ इबादत करता है, उसे ऐसा सवाब मिलता है जैसे उसने दूसरे महीनों में सत्तर फर्ज़ अदा किए हों।
इसलिए हम तमाम भाइयों और बहनों से खास तौर पर रमज़ान के मौके पर इस मदरसे की मदद करने की अपील करते हैं, ताकि आप भी इस नेक काम में शरीक होकर बड़ा सवाब हासिल कर सकें।
"निश्चित रूप से अल्लाह नेक काम करने वालों का बदला ज़रूर देता है।" (क़ुरआन)




