अहकाम

रमजानुल मुबारक एवं ईदुलफितर के अहकाम

रमज़ानुल मुबारक के फ़ज़ाइल

रमज़ान मुबारक की आमद (आगमन) मुसलमानों के लिए एक सुखद समाचार और बरकतों तथा रहमतों (दया और कृपा) का ख़ज़ाना है। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया है कि रमज़ान की पहली रात को शैतानों को क़ैद कर दिया जाता है, जहन्नम (नरक) के दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं और जन्नत (स्वर्ग) तथा रहमत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं।
इस मुबारक महीने की सबसे महत्वपूर्ण इबादत (उपासना) रोज़ा (उपवास) है। रोजे की असलियत यह है कि इंसान सहर (सुबह सादिक) से लेकर मगरिब (सूर्यास्त) तक अल्लाह की रजा की नियत से खाना-पीना और शारीरिक संबंधों से परहेज़ करें।
जो व्यक्ति सिर्फ़ अल्लाह के लिए रोज़ा रखता है, उसके पिछले गुनाह माफ कर दिए जाते हैं, और उसके मुंह की बू (जो भूख से आती है) अल्लाह के नजदीक कस्तूरी (मुश्क) से भी ज़्यादा पसंदीदा होती है। अल्लाह तआला रोज़ेदार को अपनी क़ुदरत से खुद इनाम देंगे और जन्नत में रोज़ेदारों के लिए एक ख़ास दरवाज़ा होगा जिसका नाम "रय्यान" है।
और जो लोग रोज़ा नहीं रखते, उनके लिए ये सज़ा ही क्या कम है कि उनका मालिक और पैदा करने वाला अल्लाह तआला उनसे नाखुश और नाराज़ होता है। फ़रिश्ते और नेक बंदों की महफ़िलों में उसकी निंदा की जाती है, और जिस जगह पर रमज़ान के दिन में रोज़ा न रखने वाला खाता-पीता है, वह जगह क़यामत के दिन गवाही देगी कि इसने मेरी पीठ पर गुनाह किया था।
इसलिए मुसलमानों के लिए ज़रूरी है कि रमज़ान के रोजों की कद्र करें और गफलत (लापरवाही) करके अपनी दुनिया और आख़िरत (परलोक) का नुकसान न करें।

रोज़े की फ़र्ज़ियत (अनिवार्यता)

रोज़े की फ़र्ज़ियत क़ुरआन, हदीस और इज्मा-ए-उम्मत (पूरे मुस्लिम समुदाय की सर्वसम्मति) से साबित है। जो इसका इनकार करता है, वह काफ़िर है, और जो बिना किसी वजह रोज़ा नहीं रखता, वह बड़ा गुनहगार और फासिक (पापी) है।

रोज़े की नियत (इरादा)

रोज़े के लिए ज़बान (मुंह) से निय्यत करना ज़रूरी नहीं है। सिर्फ़ दिल में यह इरादा कर लेना कि आज मेरा रोज़ा है, काफी है। लेकिन अगर कोई ज़बान से भी कह दे कि "कल रोज़ा रखूंगा", या अरबी में कह दे "بِصَوْمِ غَدٍ نَوَیْتُ" (बिसौमि ग़दिन नवयतु), तो यह और भी बेहतर है। अगर कोई व्यक्ति बिना निय्यत के भूखा-प्यासा रहे और शारीरिक संबंध भी न करें, तो यह रोज़ा नहीं माना जाएगा।
रोज़े का वक़्त सुबह सादिक से शुरू होता है। रमज़ान के रोज़े की नियत सुबह सादिक से पहले करना बेहतर है, लेकिन उसके बाद भी दोपहर से एक घंटे पहले तक की जा सकती है, बशर्ते कि उसने कुछ खाया-पिया न हो और हमबिस्तरी (शारीरिक संबंध) भी न किए हों।

वे चीजें जिनसे रोज़ा नहीं टूटता:

1. भूलकर खाना-पीना या शारीरिक संबंध करना।
2. मिसवाक (दातुन से दांतों की सफाई) करना।
3. खुद-ब-खुद उल्टी आना।
4. खुशबू सूंघना।
5. बिना इरादा धूल, मच्छर, मक्खी आदि का गले में चले जाना।
6. सिर या मूंछों पर तेल लगाना।
7. नींद में स्वप्न दोष (एहतलाम) हो जाना।
8. आंख में सुरमा या दवा या पानी डालना।
9. थूक या बलगम निगलना।
10. जानबूझकर मुंह भर से कम उल्टी करना।
11. पान की लाली गरारे के बाद रह जाना।
12. रात में संबंध बना लेना और सुबह सादिक से पहले ग़ुस्ल न करना।
13. इंजेक्शन लगवाना।

वे चीजें जिनसे रोज़ा टूट जाता है:

1. नाक या कान में दवा डालना।
2. जानबूझकर मुंह भर के उल्टी करना।
3. कुल्ला करते वक़्त पानी गले में चला जाना।
4. नाक से जोर से पानी खींचना (नास लेना)। 5. हुकना (एनिमा), पत्थर, लोहे जैसी चीजें खाना।
6. गलती से यह समझना कि सूरज डूब गया है और रोज़ा खोल लेना।
7. यह समझना कि अभी रात है और सुबह सादिक के बाद खाना खा लेना।
8. धूप बत्ती या लोबान जैसी चीज़ों की धुनी जानबूझकर सूंघना।
9. सिगरेट, हुक्का, पान, तंबाकू खाना।
10. ऐसा थूक जिसमें खून की मात्रा ज़्यादा हो, उसे निगल लेना।
11. पाखाना (मल) वाली जगह में दवा लगाना।

  • महिलाओं के लिए: पेशाब की जगह मैं दवा लगाने से रोज़ा टूट जाता है।
  • पुरुषों के लिए: इससे रोज़ा नहीं टूटता।
12. अगर दांतों में फंसा मांस या कोई टुकड़ा मुंह से बाहर निकाल कर खा लिया, तो रोज़ा टूट जाएगा।
  • अगर ज़बान से निकालकर अंदर ही निगल लिया और वो चने के बराबर या उससे ज़्यादा था, तो रोज़ा फासिद (नष्ट) हो जाएगा।
  • अगर कम था, तो नहीं टूटेगा।

क़स्दन (जानबूझकर) रोज़ा तोड़ने का हुक्म:

1. अगर किसी ने जानबूझकर रोज़ा तोड़ दिया, तो उस पर क़ज़ा और कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) दोनों वाजिब हैं।
2. कफ़्फ़ारा ये है:

  • a. लगातार दो महीने रोज़े रखे, बीच में कोई दिन छोड़ा तो फिर से शुरू से 60 रोज़े रखने पड़ेंगे।
  • b. अगर इतनी ताक़त न हो तो:
    1. 60 गरीबों को दो वक्त पेट भरकर खाना खिलाए या
    2. हर एक गरीब को फित्रे के बराबर अनाज या उसकी कीमत दे।

रोज़े के मकरूहात (अवांछनीय काम):

1. बिना ज़रूरत किसी चीज़ को चबाना, जैसे नमक आदि को चखकर थूक देना۔
2. मंजन या कोयले से दांत साफ़ करना۔
3. पूरा दिन जनाबत (ग़ुस्ल की ज़रूरत) की हालत में बिना ग़ुस्ल किए रहना۔
4. फ़स्द कराना (रक्त निकलवाना, जैसे हिजामा)۔
5. ग़ीबत (परनिंदा) करना – यह हर हाल में हराम है, लेकिन रोज़े में इसका गुनाह और बढ़ जाता है۔
6. झगड़ना, गाली देना – ये सब रोज़े में मकरूह हैं, हालाँकि रोज़ा नहीं टूटता۔

वे कारण जिनसे रमज़ान का रोज़ा छोड़ना जाइज़ है:

1. बीमारी – अगर कोई ऐसा बीमार है कि रोज़ा रखने की ताक़त नहीं, या रोज़ा रखने से बीमारी बढ़ने का ख़तरा है, तो रोज़ा न रखना जाइज़ है।

  • बाद में क़ज़ा ज़रूरी है।
  • अगर पूरी उम्र में कभी भी रोज़ा रखने की ताक़त न हो पाई, तो फिदिया की वसीयत करना वाजिब है।

2. गर्भवती महिला – अगर रोज़ा रखने से बच्चे या मां की जान को नुक़सान पहुंचने का डर हो, तो रोज़ा न रखे, बाद में उसकी क़ज़ा करें۔
3. दूध पिलाने वाली महिला – अगर रोज़ा रखने से बच्चे को दूध नहीं मिलता या तकलीफ़ होती है, तो रोज़ा न रखे, बाद में क़ज़ा करें۔
4. मुसाफ़िर (यात्री) – जो कम से कम 48 मील (लगभग 77 किमी) के सफर की नीयत से निकला हो:

  • उसके लिए रोज़ा न रखना जाइज़ है۔
  • लेकिन अगर सफर में रोज़ा रखने से कोई दिक्कत न हो तो रखना अफ़ज़ल (बेहतर) है।
  • अगर खुद या साथियों को परेशानी हो, तो रोज़ा न रखना ही बेहतर है۔

5. अगर किसी ने रोज़े की हालत में सफर शुरू किया, तो उसे रोज़ा पूरा करना ज़रूरी है।

  • अगर कुछ खा-पीने के बाद वापस घर लौट आया, तो बाकी दिन में खाना-पीना नहीं करेगा।

6. अगर किसी को रोज़ा तोड़ने के लिए जान से मारने की धमकी दी जाए, तो मजबूरी में रोज़ा तोड़ना जाइज़ है, लेकिन बाद में क़ज़ा करनी होगी۔
7. अगर कोई बीमारी या भूख-प्यास इतनी ज़्यादा हो जाए कि किसी दीनदारर मुस्लिम डॉक्टर के मुताबिक जान का ख़तरा हो, तो रोज़ा तोड़ना जाइज़ ही नहीं बल्कि वाजिब (ज़रूरी) है।

  • फिर बाद मैं उसकी क़ज़ा ज़रूरी है।

8. हैज़ (माहवारी) या निफास (बच्चा पैदा होने के बाद खून आना) –

  • इन हालतों में रोज़ा रखना जाइज़ नहीं है।
  • इन दिनों में रोज़ा छोड़कर बाद में उसकी क़ज़ा करनी होगी।

सहर (सहरी) और इफ्तार के अहकाम

सहरी खाना एक सुन्नत अमल है। अगर किसी को भूख महसूस न भी हो, तब भी एक-दो खजूर खा लेना या कम से कम पानी पी लेना बेहतर है। सहरी को देर से करना सुन्नत है, लेकिन इतनी देर नहीं करनी चाहिए कि सुबह सादिक (फज्र) के वक्त में शक होने लगे।
सूरज डूबने का पूरा यकीन हो जाने के बाद फ़ौरन इफ्तार करना मुस्तहब (पसंदीदा) है। इफ्तार में देरी करना मकरूह (नापसंद) है। हालांकि बादल वाले दिन इफ्तार में थोड़ी देरी और सहरी में थोड़ी जल्दी करना बेहतर है। इफ्तार के वक्त इतना खाना-पीना चाहिए कि भूख की तीव्रता थोड़ी कम हो जाए, ताकि मग़रिब की नमाज़ ध्यान और सुकून से पढ़ी जा सके।
इमाम को मग़रिब की नमाज़ बहुत जल्दी नहीं पढ़ानी चाहिए, बल्कि इतना इंतज़ार करना चाहिए कि लोग इत्मीनान से कुल्ली आदि कर के जमाअत में शामिल हो सकें। खजूर या किसी मीठी चीज़ से रोज़ा खोलना बेहतर है, अगर ये न मिले तो पानी या कोई और चीज़ भी इस्तेमाल की जा सकती है। कुछ लोग नमक से इफ्तार करने को सवाब समझते हैं, यह बात गलत है।
इफ्तार के समय यह दुआ पढ़ना सुन्नत है:

اللّٰهُمَّ لَكَ صُمْتُ وَعَلٰى رِزْقِكَ أَفْطَرْتُ
(ऐ अल्लाह! मैंने तेरे लिए रोज़ा रखा और तेरे ही रिज़्क से इफ्तार किया।)

तरावीह के मसाइल

रमज़ान की रातों में ईशा की फर्ज़ नमाज़ के बाद बीस रकअत तरावीह पढ़ना सुन्नत-ए-मुअक्कदा है। तरावीह में एक बार पूरा कुरआन शरीफ पढ़ना या सुनना भी सुन्नत है, और ये दोनों अलग-अलग सुन्नतें हैं। जो लोग कुछ रातों में कुरआन सुन कर तरावीह छोड़ देते हैं, वो एक सुन्नत अदा करते हैं लेकिन दूसरी को छोड़ देते हैं।
अगर हाफिज़-ए-कुरआन न मिले या कुरआन पढ़ाने के बदले में मेहनताना मांगे, तो "अलम तरा कैफ़" से तरावीह अदा कर ली जाए, मगर कुरआन पढ़ने या पढ़वाने के बदले पैसे लेना देना हराम है।
तरावीह को ईशा की फर्ज़ नमाज़ से पहले अदा करना सही नहीं है। जो व्यक्ति जमाअत के बाद मस्जिद आए, उसे पहले फर्ज़ अदा कर लेने चाहिए फिर तरावीह में शामिल होना चाहिए। जो रकअतें छूट गई हों, उन्हें बाद में या तरावीह की बैठने की मंज़िल पर पूरा किया जा सकता है। वित्र की नमाज़ को तरावीह के बाद या पहले दोनों तरीकों से पढ़ना जाइज़ है। इसलिए अगर किसी की कुछ रकअतें बाकी रह गई हों और उसने इमाम के साथ वित्र पढ़ लिए हों, तो बाद में तरावीह अदा करने में कोई हरज नहीं।
तरावीह में कुरआन इतनी तेज़ी से पढ़ना कि हर्फ़ और अल्फ़ाज़ कट जाएं, बड़ा गुनाह है। ऐसी सूरत में न इमाम को सवाब मिलेगा न मुक़तदी को। नाबालिग (अव्यस्क) लड़के को तरावीह में इमाम बनाना जाइज़ नहीं है। तरावीह की हर चार रकअत के बाद थोड़ी देर बैठना मुस्तहब है, चाहे उसमें दुआ पढ़े या खामोश बैठे रहे। अगर लोगों को थकावट हो रही हो या जमाअत के बिखरने का डर हो, तो इस बैठने को थोड़ा कम करना भी ठीक है।
मुक़तदियों की जल्दी के कारण तरावीह की तस्बीहात, रुकू-सजद, "सुब्हानकल्लाहुम्मा" और दरूद को छोड़ना बिल्कुल गलत है। हाँ, दुआ को छोड़ना अगर मजबूरी हो तो माफ़ है। कुरआन की तिलावत पूरी होने (ख़त्म कुरआन) के दिन ज़्यादा रौशनी करना, झंडियाँ लगाना, ज़बरदस्ती चंदा लेना, शोरगुल करना, मिठाई बांटना और उसे ज़रूरी समझना या न बांटने वालों को बुरा कहना – ये सब इसराफ (फिजूलखर्ची) और शरीअत के खिलाफ हैं।

तरावीह में कुरआन शरीफ की तिलावत से संबंधित मसाइल

अगर कुरआन की तिलावत (क़िरात) के दौरान किसी शब्द (कलमा) की इतनी कमी या ज्यादती हो जाए कि उसका अर्थ (मतलब) पूरी तरह बदल जाए, तो नमाज़ (तरावीह सहित) फासिद यानी अमान्य हो जाती है। उदाहरण के तौर पर, "فَمَالَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ" में अगर "لَا" को छोड़ दिया जाए, तो इसका अर्थ ही बदल जाएगा और नमाज़ फासिद मानी जाएगी।
अगर किसी शब्द की कमी या बढ़त से अर्थ न बदले, तो नमाज़ फासिद नहीं होती। कुछ ऐसे अरबी अक्षर (हुरूफ़) हैं जिनमें अंतर करना मुश्किल होता है, जैसे "س" (सीन), "ص" (साद), "ض" (ज़ाद), "ظ" (ज़ा), "ز" (ज़ाल) आदि। अगर ये अक्षर एक-दूसरे की जगह पढ़ दिए जाएँ, तो नमाज़ फासिद नहीं होती।
लेकिन जिन अक्षरों में फर्क करना आसान हो, और फिर भी गलती से उनकी अदला-बदली हो जाए जिससे अर्थ पूरी तरह बदल जाए, तो नमाज़ फासिद हो जाती है। जैसे अगर "صالحات" की जगह "طالحات" पढ़ा गया (जिससे अच्छा का अर्थ बुरा हो गया), तो नमाज़ अमान्य हो जाएगी।
अगर किसी शब्द को किसी दूसरे शब्द से बदल दिया जाए और उसका अर्थ पूरी तरह बदल जाए, तो नमाज़ ज़रूर फासिद होगी। लेकिन अगर अर्थ न बदले, जैसे "علیم" की जगह "خبیر" या "حفیظ" पढ़ लिया, तो नमाज़ सही मानी जाएगी क्योंकि सभी अल्लाह के गुण हैं और अर्थ एक जैसा है।
एक उदाहरण ये है: "وَعْدًا عَلَيْنَا إِنَّا كُنَّا فَاعِلِينَ" की जगह अगर कोई "غَافِلِينَ" पढ़ दे, तो अर्थ पूरी तरह बदल जाता है, और नमाज़ फासिद हो जाती है।
अगर दो वाक्यों के बीच शब्दों की अदला-बदली हो जाए और इससे अर्थ बदल जाए, तो भी नमाज़ अमान्य हो जाती है। उदाहरण: "إِنَّ الْأَبْرَارَ لَفِي نَعِيمٍ" और "إِنَّ الْفُجَّارَ لَفِي جَحِيمٍ" अगर इनमें "نَعِيم" और "جَحِيم" को आपस में बदल दिया गया, तो अर्थ पूरी तरह उलट जाएगा और नमाज़ फासिद हो जाएगी।
लेकिन अगर अर्थ में कोई बड़ा फर्क न हो, जैसे "لَهُمْ فِيهَا زَفِيرٌ وَشَهِيقٌ" में "شَهِيقٌ وَزَفِيرٌ" पढ़ा गया, तो नमाज़ फासिद नहीं होती क्योंकि अर्थ में विशेष बदलाव नहीं आता।

एतकाफ

रमजान के आखिरी दस दिनों का एतकाफ करना सुन्नते मुअक्कदा अलल-किफाया है, यानी अगर किसी मुहल्ले से एक आदमी भी एतकाफ कर ले तो बाकी सभी लोग इस सुन्नत से बरी हो जाते हैं, वरना सभी लोग इस सुन्नत को छोड़ने वाले और गुनाहगार होंगे। एतकाफ के लिए मर्द का मस्जिद में होना ज़रूरी है, जबकि औरत अपने घर में एक खास जगह पर एतकाफ करेगी। एतकाफ की नीयत करना और हयज़ और नफ़ास से पाक होना शर्त है। अगर बीच में हयज़ आ जाए या बच्चा पैदा हो जाए तो एतकाफ छोड़ देना पड़ेगा। एतकाफ के दौरान बातचीत करना, चुंबन लेना, लिपटना आदि भी सही नहीं है।
मर्द को मस्जिद से और औरत को अपने एतकाफ की जगह से बिना जरूरत के बाहर निकलना ठीक नहीं है, और बिना जरूरत के बाहर निकलने से एतकाफ फासिद (खत्म) हो जाता है। हाँ, शारीरिक जरूरत या नमाज़ के लिए बाहर निकलना सही है। जुमे की नमाज़ के लिए पहले इस तरह जाएं कि वहां जाकर ताहियतुल मस्जिद और जुमे की सुनतें पढ़ सकें। अगर एतकाफ के दौरान कोई व्यक्ति भूलकर या जान-बूझकर जिमा (शारीरिक सम्बन्ध) करता है तो यह एतकाफ को फासिद कर देता है। एतकाफ के दौरान पूरी तरह से चुप रहना मकरूह (नापसंद) है, लेकिन बेज़ा बातें भी नहीं करनी चाहिए, बल्कि तिलावत या किसी अन्य इबादत में मशगूल रहना बेहतर है।

ईदुल फित्र के आदेश:

1. ईदुल फित्र के दिन दो रकअत नमाज़ शुकराने के तौर पर पढ़ना वाजिब है।
2. ईद का वक्त सूरज के एक नेजे (छोटा भला) के जितना ऊँचा होने के बाद से ज़वाल-ए-आफ़ताब (सूर्य के अपने शिखर से नीचे की ओर जाने) तक है।
3. ईद की नमाज़ का तरीका यह है कि पहले नीयत करें, फिर तकबीरे तहरीमा कहकर हाथ बाँध लें, फिर तीन तकबीर कहें और हर तकबीर के बाद हाथ क़ानों तक उठाएं, फिर हाथ छोड़ दें। तीसरी तकबीर के बाद हाथ न छोड़ें, बल्कि बाँध लें फिर इमाम सुरह फातिहा और कोई दूसरी सूरत पढ़ेगा, फिर रुकू और सजदा करेगा, फिर दूसरी रकअत में पहले सुरह फातिहा पढ़ें और कोई दूसरी सूरत पढ़ें उसके बाद तीन तक्बीरें इसी तरह कहें, लेकिन यहाँ तीसरी तकबीर के बाद हाथ न बांधें बलके छोड़े रखें और फिर चोथी तकबीर कह कर रुकू मैं चले जायें।
4. ईद का ख़ुतबा सुनना वाजिब है।
5. अगर ईद की नमाज़ सब लोग पढ़ चुके हों तो कोई व्यक्ति अकेले नमाज़ नहीं पढ़ सकता।
6. अगर किसी की एक रकअत छुट जाए तो वह पहले क़िरा'त करेगा और फिर तकबीर कहेगा।
7. अगर कोई व्यक्ति नमाज़-ए-ईद में ऐसे समय शामिल हो कि इमाम खड़े होने की अवस्था में था और तकबीर से फ़ारिग़ हो चुका था तो तुरंत नीयत बांध कर तकबीर कहे, और अगर रुकू में पाया तो अगर ग़ालिब गुमान हो कि तकबीर के बाद रकू मिल जाएगा तो नीयत बांध कर तकबीर कहे, वरना रकू में तस्बीह के बजाय तकबीर हाथ उठाए बिना कहे। अगर अब तक तकबीर से फ़ारिग़ नहीं हुआ था और इमाम ने सिर उठा लिया तो वह भी खड़ा हो जाएगा और जो तकबीरें रह गईं, वह माफ़ हैं।

ईदुल फित्र की मुसन्नात:

1. शरीअत के मुताबिक़ आराइश (सजना) करना।
2. मिसवाक (दातुन) करना।
3. घुसल (नहाना) करना।
4. अपनी ताक़त के मुताबिक़ अच्छे और हलाल कपड़े पहनना।
5. खुशबू लगाना।
6. सुबह जल्दी उठना।
7. ईदगाह जाने से पहले कोई मीठी चीज़ खाना, जैसे छुआरे आदि, अगर कोई असुविधा न हो तो ईदगाह मैं नमाज़ पढ़ना।
8. एक रास्ते से जाना और दूसरे रास्ते से वापस आना।
9. पैदल जाना।
10. रास्ते में धीरे-धीरे "अल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, ला इलाहा इल्लाल्लाहु, वलल्लाहु अकबर, अल्लाहु अकबर, वलिल्लाहिल हम्द" कहते हुए जाना।

सदक़ा-ए-फित्र:

जिसके पास इतना माल हो कि उसके पास आवश्यक सामान के अलावा उस मात्रा से ज़्यादा हो, जिस पर ज़कात वाजिब होती है, उस पर सदक़ा-ए-फित्र वाजिब है, चाहे साल पूरा न हुआ हो। ईदुल फित्र के दिन सदक़ा-ए-फित्र के वाजिब होने के लिए माल का होना काफी है, साल का गुजरना शर्त नहीं है। ज़कात और सदक़ा-ए-फित्र में यही अंतर है। सदक़ा-ए-फित्र मर्द को अपनी और अपनी नाबालिग़ औलाद की तरफ़ से देना वाजिब है, और अगर औलाद मालदार हो तो उसके माल से इसे अदा किया जाएगा, पिता के माल से नहीं। सदक़ा-ए-फित्र ईद की सुबह सादिक के वक्त वाजिब हो जाता है, इसलिए जो बच्चा इसके बाद पैदा हो और जो व्यक्ति इसके पहले मर जाए, उन पर सदक़ा-ए-फित्र वाजिब नहीं है।

सदक़ा-ए-फित्र की मात्रा:

सदक़ा-ए-फित्र की मात्रा एक किलो 661 ग्राम गेहूं या इसका आटा है, लेकिन ऐतियात के तौर पर थोड़ा अधिक देना चाहिए। अगर जौ या इसका आटा दिया जाए तो उसकी मात्रा दो गुना दी जाए, और अगर गेहूं और जौ के अलावा कोई अन्य अनाज दिया जाए तो उसकी कीमत का हिसाब किया जाएगा, और वह अनाज इतना होना चाहिए कि उसकी कीमत गेहूं और जौ की मात्रा से बराबर हो। अगर गेहूं या जौ की कीमत लगाकर दिया जाए तो और भी बेहतर है। अगर ईद के दिन सदक़ा-ए-फित्र अदा नहीं कर सका तो यह खत्म नहीं होता, बाद में इसे अदा करना जरूरी है।

सदक़ा-ए-फ़ित्र के पाने वाले

सदक़ा-ए-फ़ित्र उन्हीं लोगों को देना चाहिए जो ज़कात के हक़दार होते हैं। यानी वो लोग जो ग़रीब, मुफ़लिस या ज़रूरतमंद हों। लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि अपने माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी, परदादा-परनानी आदि — यानी जिनसे इंसान का जन्म हुआ है — उन्हें सदक़ा-ए-फ़ित्र देना जाइज़ नहीं है। इसी तरह अपनी औलाद, पोते-पोतियाँ, नाती-नातिनें और उनकी औलादें — यानी जो आपकी नस्ल में आते हैं — उन्हें भी सदक़ा-ए-फ़ित्र देना नाजाइज़ है।
इनके अलावा जैसे कि: • चाचा, ताया • भाई, बहन • भतीजा, भतीजी • भांजा, भांजी • फूफा, फूफी • खाला, खालू • ग़रीब और ज़रूरतमंद लोग (मसाकीन)
इन सभी को सदक़ा-ए-फ़ित्र देना जाइज़ है।
चाहे एक ही ग़रीब को पूरा सदक़ा दे दिया जाए, या कई ग़रीबों में बाँट दिया जाए — दोनों तरीक़े सही और जाइज़ हैं।

ज़कात

क्योंकि ज़्यादातर लोग रमज़ान के पाक महीने में ज़कात अदा करते हैं, इसलिए ज़कात से जुड़े कुछ ज़रूरी मसले (मुद्दे) यहाँ बयान किए जा रहे हैं।
ज़कात इस्लाम के पाँच बुनियादी स्तंभों में से एक है, लेकिन अफ़सोस कि बहुत से मुसलमान इसमें कोताही (लापरवाही) करते हैं। कुछ लोग तो ज़कात बिल्कुल अदा नहीं करते, और कुछ बहुत ही कम देते हैं।
हज़रत रसूल-ए-अकरम ﷺ ने फ़रमाया: "जिसके पास सोना या चाँदी हो और वह उसकी ज़कात न देता हो, तो क़यामत के दिन जहन्नम (नरक) में आग की तख्तियाँ गरम की जाएँगी, और उनसे उस शख़्स की पेशानी (माथा), पीठ और दोनों पहलुओं को दागा जाएगा।"
एक और हदीस में फ़रमाया: "जिसे अल्लाह ने माल (धन) दिया और उसने उसकी ज़कात अदा नहीं की, तो क़यामत के दिन उसका माल एक बड़ा ज़हरीला साँप बनकर उसके गले में लपेटा जाएगा, और वह साँप उसके जबड़ों को काटेगा और कहेगा: ‘मैं तेरा माल हूँ, तेरा खज़ाना हूँ।’”
अल्लाह की पनाह! थोड़ी सी कंजूसी और लापरवाही के कारण कितना बड़ा और डरावना अज़ाब (सज़ा) भुगतना पड़ेगा।
اللّٰهُمَّ احْفَظْنَا
(ऐ अल्लाह! हमें अपनी हिफ़ाज़त में रख, आमीन)
इसलिए हमें चाहिए कि हम ज़कात को पूरे इत्मीनान और नियत के साथ, सही समय पर और पूरी मात्रा में अदा करें ताकि अल्लाह की रज़ा (खुशी) हासिल हो और आख़िरत (परलोक) के अज़ाब से निजात मिले।

चाँदी और सोने का निसाब

ज़कात उस विशेष मात्रा के माल (धन) पर फ़र्ज़ होती है जिसे शरीअत ने "निसाब" कहा है। यानी जब आपके पास इतना माल हो जाए जो निसाब के बराबर हो, तो उस पर ज़कात देना वाजिब हो जाता है।
चाँदी का निसाब:
• 200 दिरहम है,
• जो आज के वज़न के हिसाब से 612 ग्राम 35 मिलीग्राम चाँदी के बराबर होता है।
सोने का निसाब:
• 20 मिस्काल है,
• जो आज के वज़न के हिसाब से 87 ग्राम 979 मिलीग्राम सोना होता है इस से कम पर ज़कात वाजिब नहीं होती।
आपके पास जो रुपया-पैसा या माल है, उसका 40वां हिस्सा (2.5%) ज़कात के रूप में देना फ़र्ज़ होता है।
उदाहरण:
अगर आपके पास 100 रुपये हैं, तो उसमें से 2 रुपये 50 पैसे (ढाई रुपये) ज़कात में देना वाजिब है।
ज़रूरी बात:
• साल भर पूरे निसाब का बने रहना ज़रूरी नहीं है।
• बल्कि साल की शुरुआत और साल के अंत में अगर निसाब की मात्रा का माल मौजूद हो, तो ज़कात वाजिब हो जाती है।
• अगर बीच साल में माल कम हो गया हो तो कोई हर्ज नहीं,
• हाँ, अगर माल बिल्कुल ख़त्म हो जाए, और फिर साल के आख़िर में दोबारा निसाब के बराबर माल मिल जाए, तो ज़कात माल मिलने के दिन से एक नया साल गिन कर दी जाएगी।
किन चीज़ों पर ज़कात वाजिब है:
• सोने-चाँदी के ज़ेवर
• सोने-चाँदी के बर्तन
• असली ज़री, गोटा, और बटन (जो सोने-चाँदी के हों)
• व्यापार का माल — अगर उसकी कीमत निसाब के बराबर हो
ज़कात अदा करने के लिए नीयत (इरादा) ज़रूरी है:
जब आप माल ज़कात के लिए अलग करें या किसी फ़क़ीर को दें, तो उस वक़्त दिल में ज़कात देने की निय्यत होनी चाहिए, तभी ज़कात अदा मानी जाएगी।
मसला
कारखानों और मिल आदि की मशीनों पर ज़कात फ़र्ज़ नहीं है, लेकिन उनमें जो माल तैयार होता है, उस पर ज़कात फ़र्ज़ है।
इसी तरह जो कच्चा माल कारखाने में सामान तैयार करने के लिए रखा गया है, उस पर भी ज़कात फ़र्ज़ है। 666(दुर्र-ए-मुख़्तार व शामी)777
1. मसला
ज़कात अदा होने के लिए यह शर्त है कि जो रकम किसी ज़कात के हक़दार को दी जाए, वह उसकी किसी सेवा या काम के बदले में न हो।
2. मसला
ज़कात की अदायगी के लिए यह भी शर्त है कि ज़कात की रकम किसी ज़कात के हक़दार को मालिकाना तौर पर दी जाए, जिसमें उसे हर तरह का इख़्तियार (अधिकार) हासिल हो। उसके मालिकाना क़ब्जे के बिना ज़कात अदा नहीं होगी।
3. मसला
अगर किसी के पास कुछ नक़दी, कुछ सोना या चाँदी और कुछ व्यापारिक माल है, लेकिन अलग-अलग इनमें से कोई भी चीज़ इतनी नहीं है कि वो निसाब (ज़कात की तय मात्रा) को पहुँचे, तो सबको मिला कर देखा जाएगा –
अगर इन सब की कुल क़ीमत साढ़े बावन तोला चाँदी के बराबर या ज़्यादा हो जाए, तो ज़कात फ़र्ज़ होगी।
और अगर इससे कम हो तो ज़कात फ़र्ज़ नहीं होगी। (हिदायः)
4. मसला
कंपनियों के शेयर पर ज़कात फ़र्ज़ है, शर्त यह है कि शेयरों की कीमत निसाब (जकात का न्यूनतम मूल्य) के बराबर हो या आपके पास अन्य संपत्ति के साथ मिलकर निसाब बन जाए।
हालाँकि, कंपनियों के शेयरों की कीमत में मशीनरी, इमारतें, फर्नीचर आदि की लागत भी शामिल होती है, जो वास्तव में ज़कात से मुक्त हैं।
इसलिए, यदि कोई व्यक्ति कंपनी से यह जानकारी प्राप्त कर ले कि उसके शेयरों में से कितनी रकम मशीनरी, इमारतें और फर्नीचर में लगी है, तो वह अपने हिस्से के हिसाब से उस रकम को शेयरों की कीमत से घटा सकता है, और उसके बाद बाकी पर ज़कात दे सकता है।
इसके अलावा, जब आप ज़कात देने का समय तय करें, तो उस समय जो शेयरों की वर्तमान कीमत होगी, उसी के हिसाब से ज़कात दी जाएगी। (दुर्रे मुख्तार व शामी)
5. मसला
जो प्रॉविडेंट फंड (PF) का पैसा अभी वसूल नहीं हुआ है, उस पर ज़कात फ़र्ज़ नहीं है। लेकिन जब वह पैसा आपको मिल जाएगा, तो उस पर ज़कात फ़र्ज़ होगी, अगर वह राशि निसाब के बराबर हो या अन्य संपत्तियों के साथ मिलकर निसाब तक पहुँच जाए। (इमदाद-उल-फतावा, ज2, प.48)
6. मसला
यदि किसी व्यक्ति ने अपने ज़कात का भुगतान पहले ही कर दिया है (किसी साल के अंत से पहले), तो यह भी जाइज़ है।
हालांकि, अगर बाद में, साल पूरा होने के बाद, उसकी संपत्ति में वृद्धि हो जाती है, तो उस बढ़ी हुई संपत्ति पर अलग से ज़कात देनी होगी। (दुर्रे मुख़्तार व शामी)
7. मसला
ज़कात 2.5% (या 1/40) दी जाती है, जो सोने, चांदी और व्यापारिक माल पर फ़र्ज़ है। आप संपत्ति की कीमत पर भी ज़कात दे सकते हैं, लेकिन वह कीमत आपके द्वारा खरीदी गई कीमत के बजाय वर्तमान मूल्य पर होनी चाहिए।
ज़कात का भुगतान उस समय की वर्तमान कीमत पर किया जाएगा, जब ज़कात का वर्ष समाप्त होगा। (दुर्रे मुख़्तार, ज2)

ज़कात के खर्च करने की जगह

1. जो व्यक्ति साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोना या उसके बराबर व्यापारिक माल रखता है, उसे शरीअत में अमीर और संपन्न माना जाता है। ऐसा व्यक्ति को न ज़कात दी जा सकती है और ना ही उसके लिए किसी से ज़कात लेना जाइज़ है।
2. जो व्यक्ति इतनी संपत्ति नहीं रखता, बल्कि थोड़ा माल या कुछ भी नहीं रखता, उसे गरीब कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति को ज़कात दी जा सकती है और वह ज़कात लेने के हकदार हैं।
3. अपनी माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी, परदादा, बच्चों, पोते-पोतियाँ और नाती-नातियों को ज़कात देना जाइज़ नहीं है। ये रिश्तेदार आपके खर्च में आते हैं।
4. बहन, फूफी, खाला, मामा, ससुर, सास, ससुराल के रिश्तेदारों और उनके बच्चों को ज़कात देना जाइज़ है।
5. सैयद और हाशमी (जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) के परिवार से हैं) को ज़कात देना नाजाइज़ है।
6. मस्जिद की आवश्यकताओं (जैसे निर्माण, मरम्मत) और मृतक के कफन में ज़कात का खर्च लगाना जाइज़ नहीं है।
7. काफ़िर (गैर-मुस्लिम) को ज़कात देना जाइज़ नहीं है।
8. ज़कात को आप एक ही व्यक्ति को दे सकते हैं या कई व्यक्तियों को बाँट सकते हैं, लेकिन यह बेहतर है कि एक व्यक्ति को इतना दें कि वह एक दिन के लिए पर्याप्त हो।
9. निसाब के बराबर ज़कात देना मकरूह (अप्रिय) है, सिवाय यदि वह कर्ज़दार हो, तो ऐसा करना मकरूह नहीं होगा।


ज़रूरी निवेदन

मज़ाहिर उलूम (वक़्फ़), सहारनपुर किसी पहचान का मोहताज नहीं है। यह एक मशहूर दीनी और तालीमी इदारा (संस्था) है। इसकी पढ़ाई पूरी करने वाले छात्र आज दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में दीन की शिक्षा, धार्मिक सेवाओं और समाज की भलाई के कामों में लगे हुए हैं।
इस वक़्त मदरसे में करीब डेढ़ हज़ार छात्र पढ़ रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर बच्चों के खाने और रहने का खर्च मदरसा खुद उठाता है। इसके अलावा, अध्यापकों और कर्मचारियों की तनख्वाह, इमारतों की मरम्मत, और अन्य ज़रूरी खर्चों के कारण आज के इस महंगे दौर में मदरसे का सालाना खर्च लगभग 5 करोड़ रुपये है।
मदरसे की कोई स्थायी आमदनी (आय) नहीं है और सरकार से भी कोई मदद नहीं ली जाती। यह पूरा काम सिर्फ भले लोगों के सहयोग से चलता है, जो अल्लाह की रज़ा के लिए मदद करते हैं।
रमज़ान का महीना नेकियों और भलाई का महीना है। हदीस शरीफ में है कि जो व्यक्ति रमज़ान में कोई नफ्ल (अतिरिक्त) इबादत करता है, उसे उतना सवाब (पुण्य) मिलता है जितना दूसरे महीनों में फर्ज़ (जरूरी) इबादत का होता है। और जो रमज़ान में फर्ज़ इबादत करता है, उसे ऐसा सवाब मिलता है जैसे उसने दूसरे महीनों में सत्तर फर्ज़ अदा किए हों।
इसलिए हम तमाम भाइयों और बहनों से खास तौर पर रमज़ान के मौके पर इस मदरसे की मदद करने की अपील करते हैं, ताकि आप भी इस नेक काम में शरीक होकर बड़ा सवाब हासिल कर सकें।
"निश्चित रूप से अल्लाह नेक काम करने वालों का बदला ज़रूर देता है।" (क़ुरआन)